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________________ द्वितीयः सर्गः २७ जीवात-सम्प्रति यौवनमेवाश्रित्याह - अपीति । कान्तिझरविण्यप्रवाहैरगाघतां दुरवगाहतां गमिते तद्वपुषि दमयन्तीशरीरे प्रसर्पतोस्तरतोः स्मरयौवनयोर्द्वयोरपि उभौ कुचौ प्लवस्योन्मज्जनस्य कुम्भी प्लवनाथ कुम्भावित्यर्थः, प्रकृतिविकारभावाभावादश्वघासादिवत्तादर्थ्य षष्ठीसमासः । लोके तरद्भिः अनिमज्जनाय कुम्भादिकमलम्ब्यत इति प्रसिद्ध, भवतः खलु । अत्र कुनयोः स्मरयौवनप्लवनकुम्भत्वोत्प्रेक्षया तयोरौत्कट्यं कुचयोश्चातिवृद्धिय॑ज्यत इत्यलङ्कारेण वस्तुध्वनिः ॥ ३१ ॥ अन्वयः-कान्तिझरैः अगाधतां गमिते तद्वपुषि प्रसपंतोः स्मरयौवनयोः द्वयोः अपि उभौ कुचौ प्लवकुम्मौ भवतः । हिन्दी--लावण्य को झड़ी ( धारा-प्रवाह ) से अतलस्पशिणी दुःखगाहता को प्राप्त उसके शरीर पर प्रसर्पण ( संतरण ) करते काम और यौवन-दोनों के ही जैसे दोनों कुच संतरण-सहायक घड़े हो गये हैं। टिप्पणी-दमयन्ती पूर्ण लावण्यवती है, घोरे-धीरे काम और यौवन का प्रसार उसके भरपूर सुन्दर शरीर में हो रहा है । यह भाव प्रकट करने के लिए सौन्दर्य-धारा से उमड़ती गहरी देह-नदी में कुच रूप संतरण-कुम्म का सहारा ले तैरते दो व्यक्तियों के रूप में काम-योवन की कल्पना की गयी है। इस श्लोक में दमयन्ती-कुचों की संतरण-कुम्भों के रूप में उत्प्रेक्षा के कारण कुचों का उभार और विस्तार व्यंजित होने से मल्लिनाथ के अनुसार अलङ्कार द्वारा वस्तुध्वनि है। विद्याघर रूपक का निषेध कर 'खलु' शब्द के आधार पर उत्प्रेक्षा मानते हैं अथवा अतिशयोक्ति ॥ ३१ ॥ कलसे निजहेतुदण्डजः किम् चक्रभ्रमकारितागुणः ?। स तदुच्चकुचौ भवन् प्रभाझरचक्रभ्रममातनोति यत् ॥ ३२॥ जीवात-कलस इति । निजहेतुदण्डजः स्वनिमित्तकारणजन्यः चक्रभ्रमकारिता कुलालभाण्डभ्रमणजनकत्वं सैव गुणो धर्मो रूपादिश्च, 'गुणः प्रधाने रूपादावि'त्यमरः । स । कलसे किमु ? दण्डकायं कलसे संक्रान्तः किमु ? इत्यर्थः, कुतः यद्यस्मात् स कलसः तस्या दमयन्त्या उच्चकुचौ भवन् तत्कुचा
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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