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________________ २२ नैषधमहाकाव्यम् होने से अपह नुति है, जो 'कृतमध्यबिलम्'-इस पदार्थहेतुक काव्यलिंग से अनुप्राणित है । 'हृतसारम्'-इत्यादि उत्प्रेक्षा है। इस प्रकार यहाँ अपह नुतिकाव्यलिंग-उत्प्रेक्षा का संकर है । उत्प्रेक्षा से उपमा व्यजित है, सो अलंकारध्वनि भी है ।। २५ ॥ धृतलाञ्छनगोमयाञ्चनं विधुमालेपनपाण्डरं विधिः। भ्रमयत्युचितं विदर्भजानननीराजनवद्ध मानकम् ॥ २६ ॥ जीवातु--घृतेति । विधिह्मा घृतं लाच्छनमङ्क एव गोमयाञ्चनं मध्य स्थितगोमयसंश्लेषणम् एनम् आलेपनपाण्डरं निजकान्तिसुधाधवलितमित्यर्थः, विधं चन्द्रमेव विदर्भजाननस्य वैदर्भामुखस्य नीराजनवर्द्धमानक नीराजनशरावम् 'शरावो वर्द्धमानक' इत्यमरः । किरणदीपकलिकायुक्तमिति भावः । भ्रमयत्युचितम् लोकोत्तरत्वात् इति भावः, एवं नीराजयन्तीति देशाचारः । अत्र विधुतल्लाञ्छनादेर्नीराजनशरावगोमयादित्वेन निरूपणात्सावयवरूपकम् ॥ २६ ॥ ____ अन्वयः-विधिः घृतलाञ्छनगोमयाञ्चनम् आलेपनपाण्डरं विधु विदर्भजानननीराजनवर्द्धमानकं भ्रमयति-( इति ) उचितम् ।। हिन्दी-ब्रह्मा कलङ्क-चिह्न रूप गोवर के अँचना ( लेप ) से युक्त, पिष्टोदक ( ऐपन ) से भूरे चंद्र को विदर्भतनया ( दमयन्ती ) के मुख की आरात्तिका ( आरती ) के निमित्त मृत्पात्र (मिट्टी का वर्तन-शराब, सरैया ) के समान जो घुमाता है, सो वह उचित ही करता है । टिप्पणी-सूर्य-चंद्र सब ईश्वरेच्छा से घूमा ही करते हैं-यह प्रकृति का नियम है। कवि दमयन्ती के मुख के सम्मुख चंद्र कहीं निकृष्ट है-यह प्रमाणित करने के लिए चंद्र-भ्रमण का कारण बताता है कि दमयन्ती के मुख की आरती उतारने के लिए ब्रह्मा की चेष्टा, जिससे इस सलौने मुखड़े को नजर न लग जाय, संपूर्ण दृष्टिदोषों का निराकरण हो जाय-उर्दू-मुहावरे के अनुसार 'चश्मे-बदूर'। चंद्रमा को गोबर से लिपा ऐपन से भूरा किया गया मिट्टी का पात्र बनाया गया है, जिससे यह दृष्टिदोष निराकरण हो रहा है। लोकजीवन में भी
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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