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________________ प्रथमः सर्गः टिप्पणी-शास्त्रीय परम्परा के अनुसार इस श्लोक में चित्र दर्शन का निरूपण है । नल युग का श्रेष्ठ त्रिलोकजयी नर था और दमयन्ती त्रिलोकजयिनी नारी । उस युग में जैसे यह सर्वमान्य सत्य था। लीलागृहमित्तौ इति अघिलीलागृहभित्ति-अव्ययीभावसमास । अव्ययं विभक्तिसमीपसमृद्धिवृद्धयर्थाऽभावात्ययाऽसम्प्रतिशब्दप्रादुर्भावपश्चाद्यथानुपूर्व्ययौगपद्यसादृश्यसम्पत्तिसाकल्या - न्तवचनेषु ( अष्टाध्यायी २।१।६ )-द्वारा विभक्त्यर्थ में अधि का प्रयोग ॥३८॥ मनोरथेन स्वपतीकृतं नलं निशि क्व सा ना स्वपती स्म पश्यति । अदृष्टमप्यर्थमदृष्टवैभवात्करोति सुप्तिर्जनदर्शनातिथिम् ॥ ३९ ।।। जीवात-मनोरथेनेति । मनोरथेन सङ्कल्पेन स्वपतीकृतं स्वभर्तृकृतं नलम् अभूततद्भावेच्वौ दीर्घः । स्वपती निद्राती सा दमयन्ती क्व निशि कुत्र रात्री न पश्यति स्म ? सर्वस्यामपि रात्रौ दृष्टवती। तथा हि सुप्तिः स्वप्नः अदृष्टम् अत्यन्ताननुभूतमप्यर्थं किमुत दृष्टमिति भावः । अदृष्टवैभवात् प्राक्तनभाग्यबलात् जनदर्शनातिथिं लोकदृष्टिगोचरं करोति, तदत्रापि निमित्ताददृष्टात्तादृक स्वप्नज्ञानमुत्पन्न मित्यर्थः । सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः ॥३९॥ अन्वयः-स्वपती सा मनोरथेन स्वपतीकृतं नलं क्व निशि न पश्यति स्म ? सुप्तिः अदृष्टम् अपि अर्थम् अदृष्टवैभवात् जनदर्शनातिथिं करोति । हिन्दी-सोती वह दमयन्ती स्वेच्छया अपने पतिरूप में स्वीकारे नल को किस रात में नहीं देखा करती थी? प्रत्येक रात में देखती थी। स्वप्नदशा अदेखे अर्थ को भी पुरातन भाग्य के सामयं से मनुष्यों के दर्शन का विषय ( देखने योग्य ) बना देती है। टिप्पणी-दर्शन तीन प्रकार से होता है-(१) प्रत्यक्ष, (२) स्वप्न में, (३) चित्र में-'साक्षाच्चित्रे तथा स्वप्ने स्याद्दर्शनं विधा।' यहाँ स्वप्नदर्शन का वर्णन है । सामान्य (प्रथम-द्वितीय-चरण-कथन ) से यहां विशेष ( तृतीयचतुर्थ चरण की उक्ति ) का समर्थन है, अतएव अर्थान्तरन्यास अलंकार है। 'स्वपती' के दो दार प्रयोग से यमक । विद्याधर के अनुसार यहाँ छेकानुप्रास और हेतु अलंकार है ।।३९।। निमीलितादक्षियुगाच्च निद्रया हृदोऽपि बाह्य न्द्रियमौनमुद्रितात् । अदर्शि संगोप्य कदाप्यवीक्षितो रहस्यमस्यास्स महन्महीपतिः ॥ ४०॥
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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