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________________ परन्तु उस रूप, झोपडे - रूप, नही। पर्याय की सारी कमी अपनी, और ज्ञाता रूप रहने से उसका अभाव ज्ञानी की द्रव्यदृष्टि जाग्रत हुई और वह स्वयं को ज्ञान- रूप ही देख-जान रहा है। द्रव्यदृष्टि से तो वह ज्ञाता ही है और जब तक साधक-रूप अवस्था है तब ज्ञान- रूप रहने को ही अपना कार्य समझता है। परन्तु द्रव्य का भी एकान्त पक्ष नही ग्रहण करता-पर्याय को भी जानता है, जितनी पर्याय मे कमी है उसे अपनी कमजोरी व गलती मानता है। पर्याय दृष्टि मे विकार से हटना भी चाहता है तथा बार-बार द्रव्य- स्वभाव. का अवलम्बन लेकर अपनी उस कमजोरी को दूर करने का पुरूषार्थ करता है। ज्ञाता बनते ही विकार दूर होने लगता है, क्रोध का ज्ञाता होते ही क्रोध का अभाव होने लगता है, वह अदृश्य हो जाता है। काम-वासना का ज्ञाता होते ही उसका अभाव होने लगता है, वह बर्फ की भाति पिघलने लगती है। विकार व वासना तो चेतना के सहयोग के कारण ही फलते फूलते है और जब चेतना का सहयोग नहीं रहता, तो वे नष्टप्राय: हो जाते हैं। द्रव्य दृष्टि से तो आत्मा त्रिकाल-शुद्ध है ही, पर्याय में अशुद्ध था और वह पर्याय की अशुद्धता उस शुद्ध द्रव्य के निरन्तर अनुभव से कम होती हुई एक दिन समाप्त हो जाती है, और तब, पर्याय के भी शुद्ध हो जाने पर, द्रव्य पूर्णत: शुद्ध हो जाता है। दोनो दृष्टियो का ज्ञान- “जीव शुद्धता के लिये पुरूषार्थ करता है" यह बात भी पर्यायदृष्टि से कही जाती है, द्रव्यदृष्टि से तो वह उस पुरूषार्थ का भी ज्ञाता ही है, उस परिणति का भी कर्ता नही। द्रव्यदृष्टि से न उसे इच्छाओ का कर्ता कहते है, न कषाय का, {{40}
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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