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________________ अब ज्ञानी होने पर जब इसकी द्रव्यष्टि जाग्रत हुई, इसने अपने आपको ज्ञान रूप जाना, निजभाव-रूपदेखा तो पाया कि मै तो अकेला चैतन्य हूँ, बस, इतना ही हूँ ऐसा ही अनादिकाल से हूँ और ऐसा ही अनन्त काल तक रहूँगा। जब स्वयं को ऐसा अनुभव किया तो भयादिक कुछ भी होने का सवाल ही नही रहा, इच्छा व कषाय करने का प्रयोजन भी चला गया। जब शरीर मेरा है नही और मेरा मरण है नही, तो मरण का भय कैसा? अपना वैभव, निजात्मा के अनंत गुण अपने पास है, इसके अतिरिक्त अन्य सांसारिक वैभव अपना हो ही नहीं सकता, तो वैभव की इच्छा कैसे हो? अपना सब अपने में है, चेतन के अनन्त गुण ही मात्र मेरे हैं; वे कही बाहर जा नहीं सकते, और बाहर से उनमे कुछ भी मिलने वाला भी नही, तो फिर धन, परिवार आदि की चाह कैसे हो? इसी प्रकार मेरा अनिष्ट सम्भव नही, तब क्रोध किस पर करूं? कोई मझसे बड़ा छोटा नही तो अपमान सम्मान कैसा? कोई इष्ट नहीं, तो राग किससे? कोई अनिष्ट नही तो द्वेष किससे? इस प्रकार निज का आश्रय लेने वाले के कषाय करने का भी अभिप्राय नहीं रहा। जैसे एक दीपक किसी झोपडे में जल रहा है। वह यदि स्वयं को दीपक- रूप न देखकर झोपड़े-रूप माने तो उसे झोपड़े के चले जाने का निरन्तर भय बना, रहेगा, झोपडे सम्बन्धी हजारो चिन्ताएं व इच्छाएं उसमे जन्मेंगी। महल, प्रासाद आदि मे जल रहे अन्य दीपक से द्वेष होगा, एवं स्वयं के भीतर भी महल में जाने का राग उपजेगा! परन्तु यदि वह स्वयं को झोपड़े रूप मे न देखकर अपने-रूप, ही देखे तो न तो झोपड़े सम्बन्धी कोई भय या चिन्ता रहेगी, न महल मे जाने की इच्छा होगी, और न ही महल वाले दीपकों से द्वेष होगा, वह तो स्वयं को मात्र झोपडे को प्रकाशित करने वाला, जानने वाला ही देखगा {(39))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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