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________________ परन्तु पर्याय मे अभी भारी कमजोरी है, बहुत पराधीनता है, अत: इच्छाओं और कषायो का सद्भाव पाया जाता है। द्रव्यदृष्टि के विषय को पर्याय मे और पर्यायदृष्टि के विषय को द्रव्य-स्वभाव मे नही मिलना चाहिये। द्रव्यदृष्टिा से जीव मात्र ज्ञाता है और पर्याय दृष्टि से सारी जिम्मेवारी उसकी अपनी है। पर्याय मे पश्चातापं भी होता है कि मेरी ऐसी परिणति क्यो हुई? कर्म का नाश तो द्रव्यदृष्टि के बल पर ही होगा परन्तु पर्यायदृष्टि के ज्ञान के बल से स्वच्छंदता नही आएगी। ज्ञानी का पर्याय मे विवेक : ज्ञानी ज्ञान का ही मालिक है, उसके सिवाय और कुछ भी नही कर सकता। पर अभी अधूरी अवस्था है, इसलिए पर्याय मे इतना विवेक उसे है, कि तीव्र कषाय से हटकर मंद कषाय-रूप रहने की चेष्टा करता है परन्तु उस मंदकषाय रूप परिणति को माक्षमार्ग नहीं मानता, राग का ही कार्य जानता है। आत्माबल की कमी के कारण यदि निर्विकल्पता नही बन पाती. और विकल्पों में जाता भी है तो अन्य लौकिक बातों से बचकर देव, शास्त्र, गुरू मे ही लगने की चेष्टा करता है, और लौकिक कार्यो मे भी तीव्र कषाय युक्त विकल्प न उठाकर मंद कषाय वाले विकल्प ही उठाता है। जैसे, कोई व्यक्ति जा रहा है, उसको देखकर हम यह विकल्प भी उठा सकते है कि 'बड़ा आदमी हो गया, अब क्यो हमारी तरफ देखेगा' और यह भी सोच सकते है कि "जल्दी मे होगा, इसलिये नही देखा'। प्रत्यक्षत: पहला विकल्प दूसरे की अपेक्षा अधिक कषाय को लिये हुए है अत: ज्ञानी दुसरो प्रकार के विकल्प मे ही जाएगा। उसका सोचने का ढंग ही अज्ञानियो से निराला हो जाता है, क्योकि उसे वस्तुतत्व समझ मे आ गया है कि परिस्थिति तो मुझसे कषाय कराती नही, मै स्वयं ही ज्ञाता-रूप (( 41 ))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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