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________________ गुरू के मानने पर भी, ग्यारह अंग तक अध्ययन कर लेने पर भी, और शुभ क्रियाओं का पालन करने व परीक्षहों को सहने की पराकाष्ठा होने पर भी मोक्षमार्ग नहीं हुआ अतः मोक्षमार्ग कुछ और ही है ।" इस कथन पर इसने ध्यान ही नहीं दिया। - शास्त्रों में देव - गुरू शास्त्र की भक्ति व स्वाध्याय को शुभ राग व पुण्य बंध का, और बंध को संसार का कारण बताया गया है। परन्तु अज्ञानी ने पूजन, भक्ति व स्वाध्याय से ही मोक्ष मान लिया और इस रूप में बंध को ही संवर - निर्जरा मान कर तत्वों का सही श्रद्धान नहीं किया, एवं शुभ राग में ही धर्म मान कर आचार्यों के अभिप्राय की ओर ध्यान नहीं दिया। आचार्यों ने देव गुरू शास्त्र के श्रद्धान को कहीं सम्यक्त्व कहा भी है तो वहां उस कथन को ठीक से समझ लेना चाहिए कि सम्यम्त्व तो निश्चय से आत्मदर्शन ही है परन्तु देव गुरू - शास्त्र क्योंकि उस आत्मदर्शन में माध्यम बनते हैं अतः उनके श्रद्धान को भी व्यवहार से सम्यक्त्व है । और, माध्यम भी वे हमारे लिए तभी बनेगें जब हम उन्हे माध्यम बनाएँगे । कहा शास्त्र गुरू के माध्यम से आत्मदर्शन करना है। यदि केवल देव गुरू में ही अटके रहें तो मात्र पुण्य-बंध होगा, और यदि उनको माध्यम बनाकर आत्मदर्शन करेगें तो मोक्षमार्ग बनेगा। शास्त्रों में विवक्षा भेद से अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार के कथन मिलते हैं। उन्हें ठीक प्रकार से समझ कर बुद्धि में अच्छी तरह बैठा लेना चाहिए कि कहाँ कौन-सी विवक्षा से क्या कहा गया है। देव - शास्त्र - - स्वाध्याय के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात और भगवान् आचार्यो ने तो ग्रन्थों में वर्णन किया है कि शरीर व आत्मा अलग अलग हैं हमें जोर देना है परन्तु कि इसमें हमें क्या दिखाई देता है। शास्त्रों में तो आचार्यों ने अपने जीवन का अनुभव लिखा है और उनका अनुभव पढ़ना हमारे लिए इसी रूप - (( 13 ))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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