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________________ आत्मिक सुख की प्राप्ति तो आत्मदर्शन से होती है, जितनी कषाय मिटे उतना सुख और जितनी कषाय शेष रहे उतना दुःख है। अत: सुरख के लिए कषाय के नाश का उपाय करना चाहिये था। परन्तु इसके तो संसार -- शरीर - भोगों की प्राप्ति का ही अभिप्राय है, अत: यह मंदिर में भी इस मान्यता को लेकर ही जाता है कि देवी-देवता सुख बांटते है। इसके सारे देवताओं में समभाव है - किसी को भी पुजवा लो, सुदेव हो, कुदेव हो, धरणेन्द्र- पद्यावती हो, चाहे कोई हो। (6) छठी अज्ञानता वीतरागी देव - गुरू -- शास्त्र के सम्बन्ध में है। यदि जीव को कभी सच्चे देव - गुरू शास्त्र की प्राप्ति भी हुई और इसका मोक्ष - प्राप्ति का ध्येय भी बना तो यह देव - गुरू शास्त्र में ही अटक गया, वहाँ भी इसकी अज्ञानता छिपी नहीं रहती। आचार्यों ने सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र को मोक्ष का मार्ग बताया है। अपने को अपने रूप, ज्ञाता - द्रष्टा रूप श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, अपने - रूप जानना सम्यग् ज्ञान है, और ज्ञाता - द्रष्टा रूप रह जाना ही सम्यक्चरित्र है। इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है, और वीतरागी देव - गुरू - शास्त्र उस मोक्षमार्ग की प्राप्ति में निमित्त या माध्यम होते हैं। देव दर्शन के माध्यम से जीव को आत्मदर्शन करना था, गुरू - दर्शन से भी आत्मदर्शन करना था, और शास्त्र के द्वारा भी अपनी आत्मा का स्वरूप समझकर उस आत्मा को अपने भीतर खोजना था, परन्तु अज्ञानी ने देव - दर्शन, पूजन, भक्ति करके उन पर श्रद्धा करने से अपने आपको सम्यग्दृष्टि . मान लिया, शास्त्र ज्ञान से अपने आपको सम्यग्ज्ञानी मान लिया, और गुरू की बाहरी शुभ क्रियाओं - व्रत तप, उपवास आदि - को ही मोक्ष मार्ग मानकर व उन्हें अपना कर उनसे स्वयं को सम्यक्चारित्री मान लिया। पर असली मोक्षमार्ग की खोज इसने नहीं की। शास्त्रों का इसने खूब अध्ययन किया। उनमें यह कथन भी तो आया है कि "द्रव्यलिंगी मुनि के सच्चे देव- शास्त्र ((121
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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