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________________ में कार्यकारी हैं कि वह हमारा भी अनुभव बने। जब वह हमारा अनुभव बनेगा तभी हमारी परपदार्थ की पकड़ छूटेगी। जीवन में परिवर्तन तो जो हमें दिखाई देता है उससे होगा, न कि जो उनको दिखाई देता है उससे। जो उनको दिखाई देता है वह तो हमारे लिए मात्र गवाही बन सकती है। (७) सातवीं अज्ञानता जब तत्वज्ञान सही नहीं होता है तब अनंतानुबधी कषाय होती है। निमित्त को कर्ता मानना ही अनंतानुबंधी का जन्म है। आत्मस्वरूप को जब नहीं जानता है तब शरीर में अपनापना आता है, वहाँ एक शरीर में ही अपनापना नहीं है परन्तु अभिप्राय की अपेक्षा चौरासी लाख योनियों में से कोई भी मिल जाती तब सबमें अपनापना आ जाता है। इस प्रकार इसके अपनेपने का विस्तार अभिप्राय में अनन्त पदार्थों में रहता है, व्यक्तता जो सामने मौजूद है उसमें हो रही है। इसी प्रकार समस्त पदार्थों को यह इष्ट अनिष्ट मानता है । शरीर के लिए इष्ट को इष्ट शरीर के लिए अनिष्ट को अनिष्ट मानकर अनंत पदार्थो में संभावना की अपेक्षा अथवा मान्यता की अपेक्षा रागद्वेष रखता हैं। जबकि वस्तु इष्ट अनिष्ट है नहीं । बुखार वाले को मिट्ठा खारा लगता है, पीलिया वाले को दूध पीला लगता है वस्तु वैसी नहीं है दोष हमारे रोग का हैं। इसी प्रकार जब निमित्त को कर्त्ता मानता है तब अनंत जीव हैं और अनन्तानन्त पुद्गल, सब हमारे सुख - दुःख के निमित्त हो सकते हैं अर्थात् सुख - दुःख के कर्ता हो सकते हैं इसलिये उन सबके प्रति रागद्वेष करने का अभिप्राय बन जाता है अर्थात् अनंतानंत पदार्थों के प्रति रागद्वेष का अभिप्राय बन गया इसलिए अनन्तानुबन्धी राग द्वेष हो गया। अपने से भिन्न अनन्तानंत पदार्थों के लिए हम निमित्त हो सकते है इसलिए हम उन अनन्तानंत पदार्थों का बुरा भला कर सकते है। अतः अभिप्राय में अनन्त गुणाकार अभिमान से यह ग्रस्त हो जाता है। — - यह निमित्त का कर्तापना अपने स्वभाव को जानने से और यह जानने से मिटता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को दुःखी सुखी नहीं कर सकता, (( 14 ))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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