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________________ है । यदि परपदार्थों का परिणमन इसके विकल्पों के या इसकी क्रियाओं के ही आश्रित होता तो इसकी सदा ही सारी इच्छाओं की पूर्ति होनी चाहिए थी, परन्तु ऐसा होता तो कभी देखा नहीं गया। कदाचित् कभी इच्छा और कर्म के वैसे ही उदय का संयोग बैठ जाता है तो यह कहता है कि मैंने किया। अपने कर्तापने की मिथ्या मान्यता के विस्तार में इसके ऐसा अनुभव में आता है कि सारा संसार मानो इसके चलाने से ही चल रहा है। यदि यह कर्म का कार्य करना छोड़कर (जिसे यह कर नहीं सकता है, मात्र ऐसा मानता है कि मैं करता हूँ) तथा इस झूठी मान्यता को छोड़कर - मात्र ज्ञाता रह जाएँ, तो भी सारा संसार चलेगा तो अपनी धुरी पर ही, इसको तो खत्म होना नहीं, हाँ, इस अज्ञानी का संसार अवश्य खत्म हो जाये। जन्मों-जन्मों के इसके सारे दुःख आत्यंतिक क्षय को प्राप्त हो जाएं पर यह बात इसकी समझ में बैठती ही नहीं। (5) पांचवी अज्ञानता भगवान को कर्त्ता मानने की है। अपनी इच्छा के अनुकूल इसे कर्म का कार्य होता दीखता है तो यह कहता है कि मैंने किया, और कदाचित् स्वयं से होता नदीखे, अपनी आशाओं पर पानी फिरता दिखाई दे, तो देवी देवताओं को अपने से अधिक शक्तिशाली समझ कर उनके पास मनन्त मांगने पहुंच जाता है कि "मेरा फलां काम कर देना, ये दे देना, वो देना “और तो और, वीतराग भगवान के मन्दिर में भी इन्हीं संसार, शरीर, भोगों के अभिप्राय को लेकर पहुँच जाता है और वहां सौदेबाजी करता है। "तुम दस लाख दोगे तो मैं चार - छत्र- चढ़ाऊँगा । (ऐसी प्रवृति, ऐसी मान्यताएँ ही हमारे जीवन में घूसखोरी का कारण बनी हैं) धारणा वहीं विपरीत चल रही है। या तो यह स्वयं को कर्ता बनाता है या फिर भगवान को कर्ताबना देता है और सोचता है कि भगवान मेरी सारी इच्छाओं की पूर्ति कर देंगें या फिर इस अज्ञानी की समझ में यह बैठा हुआ कि यथायोग्य पुण्य के उदय से सारी अनुकूल सामग्री प्राप्त होती है अत: यह पुण्य बंध करने के लिए ही वीतरागी की उपासना करता है और इस रूप में संसार की ही चाह किया करता है। (( 11 ))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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