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________________ कुन्दकुन्द-भारता कर्ण इंद्रियके द्वारा ग्राह्य होने तथा भित्ति आदि मूर्त पदार्थों के द्वारा रुक जाने आदिके कारण शब्द मूर्तिक है, परंतु रूप, रस, गंध और स्पर्शके समान वह पुद्गलमें सदा विद्यमान नहीं रहता इसलिए गुण नहीं है। शब्द परमाणुमें भी नहीं रहता, किंतु स्कंधमें रहता है अर्थात् स्कंधोंके पारस्परिक आघातसे उत्पन्न होता ह इसलिए पुद्गलका गुण न होकर उसकी पर्याय है।।४० ।। अब अन्य पाँच अमूर्त द्रव्योंके गुणोंका वर्णन करते हैं -- आगासस्सवगाहो, धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं। धम्मेदरदव्वस्स दु, गुणो पुणो ठाणकारणदा।।४१।। कालस्स वट्टणा से, गुणोवओगोत्ति अप्पणो भणिदो। णेया संखेंवादो, गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं ।।४२।। जुगलं।। आकाशद्रव्यका अवगाह, धर्मद्रव्यका गमनहेतुत्व, अधर्मद्रव्यका स्थितिहेतुत्व, कालद्रव्यका वर्तना और जीव द्रव्यका उपयोग गुण कहा गया है। इस प्रकार अमूर्त द्रव्योंके गुण संक्षेपसे जानना चाहिए। पुद्गलको छोड़कर अन्य पाँच द्रव्य अमूर्त हैं, इसलिए उनके गुण भी अमूर्तिक हैं। न उन द्रव्योंका इंद्रियोंके द्वारा साक्षात् ज्ञान होता है और न उनके गुणोंका। समस्त द्रव्योंके लिए अवगाहन -- स्थान देना आकाश द्रव्यका गुण है। यद्यपि अलोकाकाशमें आकाशको छोड़कर ऐसा कोई द्रव्य नहीं है जिसके लिए अवगाहन देता हो तो भी शक्तिकी अपेक्षा उसका गुण रहता ही है। जीव और पुद्गलके गमनमें सहायक होना धर्म द्रव्यका गुण है, उन्हीकी स्थितिमें निमित्त होना अधर्म द्रव्यका गुण है। समय-समय प्रत्येक द्रव्योंकी पर्यायोंके बदलनेमें सहायक होना काल द्रव्यका गुण है और जीवाजीवादि पदार्थों को सामान्य विशेष रूपसे जानना जीव द्रव्यका गुण है। यह आकाशादि पाँच अमूर्तिक द्रव्योंके असाधारण गुणोंका संक्षिप्त विवेचन है।।४१-४२।। आगे छह द्रव्योंमें प्रदेशवत्त्व और अप्रदेशवत्त्वकी अपेक्षा विशेषता बतलाते हैं -- जीवा पोग्गलकाया, धम्माऽधम्मा पुणो य आगासं । देसेहिं असंखादा, णत्थि पदेसत्ति कालस्स।।४३।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशमें पाँच द्रव्य प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यात हैं अर्थात् इनके असंख्यात प्रदेश हैं और कालद्रव्यके प्रदेश नहीं हैं। कालद्रव्य एकप्रदेशात्मक है, अतएव उसमें द्वितीयादि प्रदेश नहीं हैं।।४३।।२ १. पुग्गलकाया । २. आयासं। ३. सपेदसेहिं । ४. असंख्या ज. वृ.। २.४३ वीं गाथाके बाद ज. व. में निम्नांकित गाथा अधिक व्याख्यात है -- 'एदाणि पंच दव्वाणि उज्झियकालं तु अस्थिकायत्ति। भण्णंते काया पुण बहुप्पदेसाण पचयत्तं ।।'
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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