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________________ प्रवचनसार आगे गुणोंकी विशेषतासे ही द्रव्यमें विशेषता होती है यह सिद्ध करते हैं. -- लिंगेहिं जेहिं दव्वं, जीवमजीवं च हवदि विण्णादं । १६७ भावविसिट्ठा, मुत्तामुत्ता गुणा या ।। ३८ । जिन चिह्नोंसे जीव अजीव द्रव्य जाना जाता है वे द्रव्य भावसे विशिष्ट अथवा अविशिष्ट मूर्तिक और अमूर्तिक गुण जानना चाहिए। 'ते तब्भावविसिट्ठा' यहाँ पर दोनों ही वृत्तिकारोंने 'तब्भाव विसिट्ठा' और 'अतब्भाव विसिट्ठा' इस प्रकार दो पाठ मानकर वृत्ति लिखी है जिसका अभिप्राय यह है । द्रव्य और गुणमें आधार आधेय अथवा लक्ष्य-लक्षण भाव है। द्रव्यमें गुण रहते हैं अथवा गुणोंके द्वारा द्रव्यका परिज्ञान होता है। भेद नयसे जिस समय विचार करते हैं उस समय द्रव्य द्रव्यरूप ही रहता है और गुण गुणरूप ही है । द्रव्य गुण नहीं होता और गुण द्रव्य नहीं हो पाता, इसलिए यहाँ गुणोंको विशेषण दिया गया है कि वे अतद्भावसे विशिष्ट हैं, अर्थात् द्रव्यत्व भावसे विशिष्ट नहीं हैं -- जुदे हैं। और अभेद नयसे जब विचार करते हैं तब प्रदेश भेद न होनेसे द्रव्य और गुण एकरूप ही दृष्टिगत होते हैं, इसलिए इस नयविवक्षासे गुणोंको विशेषण दिया गया है कि वे तद्भावसे विशिष्ट हैं, अर्थात् द्रव्यके स्वभावसे विशिष्ट हैं, द्रव्यरूप ही हैं, उससे जुदे नहीं हैं। जो द्रव्य जैसा होता है उसके गुण भी वैसे ही होते हैं, इसलिए मूर्त द्रव्यके गुण मूर्त होते हैं -- इंद्रियग्राह्य होते हैं जैसे कि पुद्गलके रूप रस गंध स्पर्श और अमूर्त द्रव्यके गुण अमूर्त होते हैं -- इंद्रियोंके द्वारा अग्राह्य होते हैं जैसे कि जीवके ज्ञानदर्शनादि । । ३८ ।। आगे मूर्त और अमूर्त गुणोंका लक्षण ग्रंथकार स्वयं कहते हैं -- मुत्ता इंदियगेज्झा, पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा' । दव्वाणममुत्ताणं, गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा । । ३९ ।। मूर्त गुण इंद्रियोंके द्वारा ग्राह्य हैं, पुद्गलद्रव्यात्मक हैं और अनेक प्रकारके हैं तथा अमूर्तिक द्रव्योंके गुण अमूर्तिक है, इंद्रियोंके द्वारा अग्राह्य हैं ऐसा जानना चाहिए ।। ३९ ।। अब मूर्त पुद्गल द्रव्यके गुणोंको कहते हैं- वण्णरसगंधफासा, विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमादो। पुढवीपरियंतस्स य, सद्दो सो पुग्गलो चित्तो ।। ४० ।। सूक्ष्म परमाणुसे लेकर महास्कंध पृथिवी पर्यंत रूप, रस, गंध और स्पर्श ये चार प्रकारके गुण विद्यमान रहते हैं। इनके सिवाय अक्षर अनक्षर आदिके भेदसे विविध प्रकारका जो शब्द है वह भी पौद्गल - पुद्गल संबंधी पर्याय है। १. अणेयविहा ज. वृ. ।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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