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________________ कुन्दकुन्द-भारता 'तेक्कालणिच्चविसमं, सकलं सव्वत्थ संभवं चित्तं। जुगवं जाणदि जोण्हं, अहो हि णाणस्स माहप्पं ।।५१।। जिनेंद्र भगवानका ज्ञान अतीतादि तीन कालोंसे सदा विषम, लोक-अलोकमें सर्वत्र विद्यमान, नानाजातिके समस्त पदार्थों को एक साथ जानता है। निश्चयसे क्षायिक ज्ञानका विचित्र माहात्म्य है।।५१ ।। आगे केवलीके ज्ञानक्रिया न होनेपर भी बंध नहीं होता है यह निरूपण करते हैं -- ण वि परिणमदि य गेण्हदि, उप्पज्जदि णेव तेसु अत्थेसु। जाणण्णवि ते आदा, अबंधगो तेण पण्णत्तो।।५२।। केवलज्ञानी शुद्धात्मा चूँकि उन पदार्थोंको जानता हुआ भी उन रूप न परिणमन करता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न उनमें उत्पन्न ही होता है, इसलिए वह अबंधक -- बंधरहित कहा गया है ।। ५२।। इति ज्ञानाधिकार: आगे ज्ञानसे अभिन्नरूप सुखका वर्णन करते हुए आचार्य महाराज ज्ञान और सुखमें कौनसा ज्ञान तथा सुख छोड़नेयोग्य है और कौनसा ज्ञान तथा सुख ग्रहण करनेयोग्य है? इसका विचार करते *अत्थि अमुत्तं मुत्तं, अदिदियं इंदियं च अत्थेसु। णाणं च तथा सोक्खं, जं तेसु परं च तं णेयं ।।५३।। पदार्थोंके विषयमें जो ज्ञान अतींद्रिय होता है वह अमूर्तिक है और जो इंद्रियजन्य होता है वह मूर्तिक कहलाता है। इसी प्रकार अतींद्रिय और इंद्रियजन्य सुख भी क्रमशः अमूर्तिक तथा मूर्तिक होता है। इन दोनोंमें जो उत्कृष्ट है वही उपादेय है। मूर्तिक ज्ञान और सुख क्षायोपशमिक उपयोग शक्तियों तथा क्षायोपशमिक इंद्रियोंसे उत्पन्न होता है अतः पराधीन होनेसे कादाचित्क है, क्रमसे प्रवृत्त होता है, प्रतिपक्षीसे सहित है, हानि-वृद्धिसे युक्त है १. तिक्काल ज. वृ.। २. अढेसु ज. वृ. । ३. 'जीवन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भावि भूतं समस्तं, मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निक्षूनकर्मा । तेनास्ते युक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीतज्ञेयाकारं त्रिलोकी पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः।।' ज. वृ. । ४. 'तस्स णमाई लोगो देवासुरमणुअरायसंबंधो। णाणं च तधा सोक्खं जं तेस् परं च तं णेयं ।।' ज. वृत्तावधिकः पाठः।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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