SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार जो विजादि जुगवं, अत्थे तेकालिके' तिहुवणत्थे । सण सक्कं सपज्जयं दव्वमेकं वा ।। ४८ ।। जो पुरुष तीन लोक में स्थित तीन कालसंबंधी समस्त पदार्थोंको एकसाथ नहीं जानता उसके अनंत पर्यायोंसे सहित एक द्रव्यको भी जाननेकी शक्ति नहीं है। जानता ।। ४८ ।। जिस प्रकार दाह्य -- इंधनको जलानेवाली अग्नि स्वयं दाह्यके आकार परिणत हो जाती है उसी प्रकार ज्ञेयोंको जाननेवाला आत्मा स्वयं ज्ञेयाकार परिणत हो जाता है। केवलज्ञानी अनंत ज्ञेयोंको जानते हैं इसलिए उनके आत्मामें अनंत ज्ञेयोंके आकार दर्पणमें घटपटादि के समान प्रतिबिंबित रहते हैं। अतः जो केवलज्ञानके द्वारा प्रकाश्य अनंत पदार्थोंको नहीं जानता वह उनके प्रतिबिंबाधार आत्माको भी नहीं १४१ आगे जो एकको नहीं जानता वह सबको नहीं जानता ऐसा निश्चयय कहते हैं दव्वं अणंतपज्जयमेक्कमणंताणि दव्वजादाणि । विदिदिवं, कधं सो सव्वाणि जाणादि । । ४९ । । जो अनंत पर्यायोंवाले एक आत्मद्रव्यको नहीं जानता है वह अंतरहित संपूर्ण द्रव्योंके समूहको कैसे जान सकता है? जिस आत्मामें अनंत ज्ञेयोंके आकार प्रतिफलित हो रहे हैं वही समस्त द्रव्योंको जान सकता है। तात्पर्य यह हुआ कि जो एकको जानता है वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एकको जानता है। यहाँ एकसे तात्पर्य केवलज्ञानविशिष्ट आत्मा से हैं ।। ४९ ।। आगे क्रमपूर्वक जाननेसे ज्ञानमें सर्वगतपना सिद्ध नहीं हो सकता ऐसा सिद्ध करते हैं. -- -- ३ उप्पज्जदि जदि णाणं, कमसो अत्थे पडुच्च णाणिस्स । तं व हवदि णिच्चं, ण 'खाइगं णेव " सव्वगदं । । ५० ।। यदि ज्ञानी - आत्माका ज्ञान क्रमसे पदार्थोंका अवलंबन कर उत्पन्न होता है तो वह न नित्य है, न क्षायिक है और न सर्वगत -- समस्त पदार्थोंको जाननेवाला ही है। उत्तर पदार्थका आलंबन मिलनेपर पूर्व पदार्थके आलंबनसे होनेवाला ज्ञान नष्ट हो जाता है इसलिए वह नित्य नहीं हो सकता। ज्ञानावरण कर्म क्षयसे प्रकट होनेवाला ज्ञान सदा उपयोगात्मक रहता है, उसमें क्रमवर्तित्व संभव नहीं है। यह क्रमवर्तित्व क्षायोपशमिक ज्ञानमें ही संभव है। इसी प्रकार जो ज्ञान क्रमवर्ती होता है वह समीप होता है । वह एक कालमें संसारके समस्त पदार्थोंको नहीं जान सकता है ।। ५० ।। आगे एक साथ प्रवृत्ति होनेसे ही ज्ञानमें सर्वगतपना सिद्ध होता है ऐसा निरूपण करते हैं १. तिक्कालिगे ज. वृ. । २. 'एको भावः सर्वभावस्वभावः सर्वे भात्रा एकभावस्वभावः । एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्धः सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धाः ।।' ३. अट्ठे ज. वृ. । ४. खाइयं ज. वृ. । ५. सव्वगयं ज. वृ. ।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy