SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (8) दृष्टिदोष है । जैसे, स्त्री न तो स्वर्ग है, और न ही नरक । अगर वह नरक दिखाई देती है तब भी हमारा दृष्टिदोष है, और अगर वह स्वर्ग दिखाई दे तब भी दृष्टिदोष है। स्त्री अपने से भिन्न एक जीवात्मा दिखाई दे, यही सही दृष्टि है। कोई वस्तु न अच्छी है, न बुरी है, वस्तु तो वस्तुरूप है; अच्छा-बुरापना वस्तु में नहीं है, अपितु हमारे भीतर से आने वाला विकार है। जैसे कि पीलिये के रोगी को दूध पीला दिखाई देता है; वस्तुतः दूध पीला नहीं है, पीला दिखाई देना तो एक दृष्टिविकार है । इसी प्रकार, यदि वस्तु हमें अच्छी-बुरी लग रही है तो समझना चाहिये कि हमारे भीतर का विकार अभी मिटा नहीं है। हमें वस्तु को ठीक नहीं करना है, अपितु अपने विकारों को मिटाना है। सुख-दुख या तो दूसरों के कारण से होता है या पुण्य-पाप से होता है, पहले तो ऐसा मानता था । अब समझ में आया कि दुख तो अपनी कषाय से होता है और सुख कषाय के अभाव से, अत: सुखी होने के लिए कषाय के अभाव का उपाय करता है। इस जीव को कोई अन्य जीव न तो दुख दे सकता है और न ही सुख - मैं दूसरे को नहीं दे सकता, दूसरा मुझे नहीं दे सकता । परन्तु हम लोग एक-दूसरे से दुख-सुख ले लेते हैं-दूसरे को देखकर, उसकी चाल-ढाल से, उसके वचन व्यवहार से जब हम दुख-सुख ले लेते हैं तो लौकिक भाषा में यह कहा जाता है कि उसने दुख-सुख दिया। वस्तुतः उसने नहीं दिया, हमने लिया है इसकी वजह हम हैं दूसरा नहीं है । यह बात समझ में आने से इस जीव के दूसरे को दुखी - सुखी करने का अहंकार पैदा नहीं होता और अपने दुख-सुख के लिये यह दूसरे को जिम्मेवार नहीं ठहराता । । (५) पहले मानता था कि कषाय दूसरों की वजह से होती है या कर्मोदय के कारण होती है। अब समझ में आया कि कषाय होने में समूची जिम्मेदारी मेरी अपनी है । कोई पर वस्तु कषाय नहीं कराती, और न ही पर की वजह से कषाय होती है, बल्कि जब पर का अवलम्बन ( ४२ )
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy