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________________ उनके रहते हुए भी उनका ज्ञाता हो गया है-कर्तृत्व अथवा अहंपना समाप्त हो गया है। कल तक शरीर के स्तर पर रहते हुए मानता था कि : "मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरो धन गृह गोधन प्रभाव। मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन।। तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान।" परन्तु आज आत्मा के स्तर पर रहकर यह पाता है कि मैं एक, अकेला, अनन्त गुणों का पिण्ड, चैतन्य-तत्त्व हूँ, मेरा न तो जन्म है और न मरण, न मैं मनुष्य-तिर्यंच-देव-नारकी हूँ और न ही स्त्री-पुरुष-नपुंसक, न मैं धनिकनिर्धन, मूर्ख-बुद्धिमान आदि हूँ और न परपदार्थों के संयोग-वियोग मुझे सुखीदुखी कर सकते हैं। आत्मदर्शन के साथ होने वाली सम्यक् धारणाएँ जब इस प्रकार अपने चैतन्य स्वभाव का अनुभवन करता है तब : (१) अहंकार पैदा होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि अहंकार का तो आधार ही शरीरादि में, पुण्य-पाप के फलरूप परपदार्थों में, और शुभ-अशुभ भावों में अपनेपने की मिथ्या मान्यता है। त्याग और ग्रहण, गृहस्थ-मुनिपना, गरीब-अमीरपना, मूर्खविद्वानपना, रोगी-नीरोगीपना, मनुष्य-पशुपना आदि सभी चूंकि 'परिधि' के हिस्से हैं और अब इसका सर्वस्व केन्द्र' पर है— 'वह' में है-अत: पर्याय में अहंबुद्धि कैसे हो सकती है ? (२) चेतना के स्तर पर, केन्द्र पर, यह ज्ञान-दर्शन के अतिरिक्त कुछ कर ही नहीं सकता। जो सुखी-दुखी करने के भाव होते हैं वे सब परिधि पर हैं—'यह' के हिस्से हैं—विकारी परिणाम हैं, अत: पर को सुखी-दुखी करने का मिथ्या अहंकार नहीं होता। शरीर के स्तर पर तो कोई इष्ट है और कोई अनिष्ट। परन्तु चेतना के स्तर पर न कोई इष्ट है, न कोई अनिष्ट। अत: राग-द्वेष करने का कोई कारण ही नहीं रह जाता क्योंकि इष्ट-अनिष्टपना वस्तु में नहीं है। वस्तु में इष्ट-अनिष्टपना दिखाई देना, यह तो हमारा
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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