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________________ लेकर मैं स्वयं ही रागद्वेष रूप परिणमन करता हूँ तो ऐसा कह दिया जाता है कि पर ने कषाय कराई। पर न तो कोई कार्य करता है, न कार्य कराता है, अपितु हम ही पर का अवलम्बन लेकर कार्य करते हैं। सामान्यत: लोग ऐसा मानते हैं कि दूसरे ने गाली निकाल कर हमें क्रोध करा दिया, दूसरे ने हमारा मन चला दिया, इत्यादि; परन्तु ऐसा नहीं है। बल्कि ऐसा है कि कुँए में खाली बाल्टी हमने डाली, उस बाल्टी ने कुँए के पानी में कोई बदलाव तो किया नहीं, मैला पानी कुँए में भरा था सो उसने मैला पानी ही बाहर ला दिया। यदि कुँए में साफ पानी होता तो वह साफ पानी बाहर ला देती, और यदि कुँए में पानी न होता तो बाल्टी खाली ही वापिस आ जाती। बाल्टी ने कुँए के भीतर कुछ पैदा नहीं किया है। दूसरा व्यक्ति हमारे लिये बाल्टी के समान है। उदाहरण में तो हम बाल्टी का गुण-दोष न समझकर, कुँए का पानी मैला या साफ है, यही समझते हैं। परन्तु, यहाँ गाली देने वाले का दोष देखते हैं, उसको ठीक करना चाहते हैं। जब गाली का अवलम्बन हमने लिया, उसको अनिष्टरूप हमने माना तब भीतर में पड़े विकार का क्रोधरूप परिणमन हुआ, अतः गलती हमारी है। अपनी कमी/गलती को देख कर हमें खुद को ठीक करना बाहरी विपरीत वातावरण से बचता है, वह इसलिये नहीं कि वे मेरा बुरा कर देंगे, बल्कि इसलिये कि वैसे वातावरण में मैं अपनी कमजोरी की वजह से फिसल जाता हूँ। दोष उस वातावरण का नहीं है, अपनी कमजोरी का है। उस वातावरण को बुरा मान कर द्वेष नहीं करता; अपितु अपनी कमी को दूर करना चाहता है इसलिये उससे अपना बचाव करता है, उसी प्रकार जैसे कि बुखार का रोगी घी का सेवन नहीं करता। चेतना के स्तर पर इस जीव का न तो जन्म है और न ही मरण; इसलिये दूसरा मेरा मरण कर दे अथवा मैं दूसरे का मरण कर दूं, यह प्रश्न ही नहीं उठता। शरीर के स्तर पर शरीर का रहना या न (७) (४३)
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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