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________________ नहीं है। अब कर्तापना ( Doing ) तो समाप्त हो गया, मात्र होना (Being) रह गया; अनेक प्रकार के शुभ-अशुभ भाव और शरीर की अवस्थायें हो रही हैं, मैं उनका जानने वाला तो हूँ, करने वाला नहीं । जब आत्मा इस प्रकार शुभ-अशुभ भावों अर्थात् राग-द्वेष तथा शरीर से भिन्न स्वयं को ज्ञानरूप देखता है तो इसके जीवन में सहज-स्वाभाविकरूप से परिवर्तन आना अवश्यम्भावी है । इतना जरूर है कि किसी के जीवन में वह परिवर्तन अपेक्षाकृत तेजी से आए जबकि किसी दूसरे के जीवन में धीमेधीमे आए । परिवर्तन की गति व्यक्ति विशेष पर निर्भर कर सकती है परन्तु परिवर्तन अवश्य आएगा। आत्मज्ञान होने के बाद राग-द्वेष की स्थिति आत्म-अनुभव होने पर भी, ज्ञान - स्वभाव में अपनापना स्थापित होने पर भी, अभी आत्मबल की इतनी कमी है कि उस ज्ञान स्वभाव में ठहरना चाह कर भी ठहर नहीं पाता है । इस स्थिति का कारण क्या हैं ? यह कैसी विवशता है ? इसे आत्मबल की कमी कह सकते हैं, राग की तीव्रता कह सकते हैं, अथवा पूर्व संस्कारों का, कर्मों का, जोर कह सकते हैं। यद्यपि श्रद्धा में सही वस्तु तत्त्व आ गया है, तथापि कार्यरूप परिणति नहीं हो पा रही है। शरीर में अपनापना तो नहीं रहा परन्तु शरीर में स्थिति है; राग-द्वेष में अपनापना तो नहीं रहा, परन्तु राग-द्वेषरूप भाव अभी भी है । जैसे, कुम्हार ने चाक से डंडा तो हटा लिया परन्तु चाक अभी तक चल रहा है। अथवा पेड़ को तो काट डाला गया परन्तु पत्ते अभी हरे हैं। बच्चे का पालन तो हो रहा है; पहले बन कर था, अब धाय की तरह है। घर में तो रह रहा है परन्तु अब घर नहीं है, धर्मशाला है। व्यापार तो हो रहा है; पहले मालिक बन कर था, अब ट्रस्टी बन कर है । चीजें तो अब भी हैं किन्तु स्वामित्व अब नहीं रहा । चूंकि पूर्व संस्कार उसे स्वभाव में नहीं ठहरने दे रहे हैं इसलिए उन्हें तोड़ने के लिए वह नये संस्कार पैदा करता है। अभी तक शरीर से प्रति समय एकत्व की भावना भा करके इसने जो संस्कार इकट्ठे किये थे वे शरीर के प्रति अन्यत्व की भावना के बल से ही मिट सकते हैं, अतः अब यह उसी का उपाय करता है। अब तक रागादि और शरीरादि का कर्त्ता बनता था, अब ( ४० )
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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