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________________ १४ कुन्दकुन्द-भारती गुणगुणी व्यवहारकी अपेक्षा ज्ञानगुणके द्वारा पुरुष ज्ञानी नाम पाता है। वैसे ही इन दो प्रकारके भेदाभेद कथनके द्वारा वस्तुस्वरूपको जाननेवाले पुरुष पृथक्त्व और एकत्वका निरूपण करते हैं। जहाँ प्रदेशभेद होता है वहाँ पृथक्त्व व्यवहार होता है और जहाँ उसका अभाव होता है वहाँ एकत्व व्यवहार होता है।।४७।। ज्ञान और ज्ञानीमें सर्वथा भेदका निषेध णाणी णाणं च सदा, अत्यंतरिदो दु अण्णमण्णस्स । दोहं अवेदणत्तं, पसजदि सम्मं जिणावमदं । ।४८ । । ज्ञान और ज्ञानी दोनोंका सदा अर्थांतर - सर्वथा विभिन्न माननेपर दोनोंमें जड़ताका प्रसंग आता है और वह जड़ता यथार्थमें श्री जिनेंद्रदेवको अभिमत नहीं है। जिस प्रकार उष्ण गुणवान् अग्निसे यदि उष्णगुणको सर्वथा जुदा माना जावे तो अग्नि शीतल होकर दाहक्रियाके प्रति असमर्थ हो जावे इसीप्रकार जीवसे यदि ज्ञानगुणको सर्वथा जुदा माना जावे तो जीव जड़ होकर पदार्थोंके जाननेमें असमर्थ हो जावे। पर ऐसा देखा नहीं जाता। यहाँ कोई यह कह सकता है कि जिसप्रकार देवदत्त अपने शरीरसे भिन्न रहनेवाले दात्र (हंसिया) के द्वारा तृणादिका छेदक हो जाता है उसीप्रकार जीव भी भिन्न रहनेवाले ज्ञानके द्वारा पदार्थोंका ज्ञायक हो सकता है। पर उसका ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि छेदर्नाक्रयाके प्रति दात्र बाह्य उपकरण है और वीर्यांतराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुई पुरुषकी शक्तिविशेष आभ्यंतर उपकरण है । इस आभ्यंतर उपकरणके अभावमें दात्र तथा हस्तव्यापार आदि बाह्य उपकरणके रहनेपर भी जिसप्रकार छेदनक्रिया नहीं हो सकती उसीप्रकार बाह्य उपकरणके रहनेपर भी ज्ञानरूप आभ्यंतर उपकरणके अभाव में जीव पदार्थों का ज्ञाता नहीं हो सकता। सार यह है कि बाह्य उपकरण यद्यपि कर्तासे भिन्न है तथापि आभ्यंतर उपकरण उससे अभिन्न ही रहता है। यदि कोई यह कहे कि ज्ञान और ज्ञानी यद्यपि जुदे-जुदे हैं तथापि संयोगसे जीवमें चेतना आ जावेगी तो यह कहना ठीक नहीं मालूम होता, क्योंकि ज्ञानगुणरूप विशेषतासे रहित जीव और जीवसे भिन्न रहनेवाला निराश्रय ज्ञान, दोनों ही शून्यरूप सिद्ध होते हैं- दोनोंका अस्तित्व नहीं है ।। ४८ ।। ज्ञानके समवायसे आत्मा ज्ञानी होता है इस मान्यता का निषेध हि सो समवायादो, अत्यंतरिदो दु णाणदो णाणी । अण्णाणीति य वयणं, एगत्तप्पसाधगं होदि ।। ४९ ।। जब कि ज्ञानी आत्मा ज्ञानसे सर्वथा विभिन्न है तब वह उसके समवायसे भी ज्ञानी नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ज्ञानके साथ समवाय होनेके पहले आत्मा ज्ञानी था या अज्ञानी? यदि ज्ञानी था तो ज्ञानका समवाय मानना किसलिए? यदि अज्ञानी था तो अज्ञानी होनेका कारण -
SR No.009558
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages39
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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