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________________ १४. उपशम आदि ६७ कर्म सिद्धान्त सम्भव नहीं, जैसे कि हम तुम एक बार जानी हुई बात को फिर सारे जीवन तक या दीर्घ काल तक भूल नहीं पाते। ___३. क्षयोपशम जिस प्रकार नींद से खुली हुई आँख की, एक बार मुन्दने के पश्चात् दो अवस्थायें होती हैं—एक तो पुन: नींद आ जाने रूप और दूसरी कुछ देर आँखे चुन्धियाने रूप; उसी प्रकार कर्म का उपशम हो जाने पर उसकी दो अवस्थायें हो जाती हैं-एक तो पूर्ण उदय आ जाने रूप और दूसरी आंशिक उदय तथा आंशिक उपशम रूप। पहली अवस्था में तो जीव के परिणाम पूर्ण अन्धकार में विलीन हो जाते हैं परन्तु दूसरी अवस्था में कुछ धुन्धला मा प्रकाश प्रतीति में आता रहता है । इस प्रकार के आंशिक उदय का नाम 'क्षयोपशम' है। इस आंशिक उदय को हम तीन रूपों में देख सकते हैं-एक तो अपूर्णता के रूप में, दूसरे अविशदता या धुन्धलेपन के रूप में और तीसरे हानि-वृद्धिगत तरतमताओं के रूप में। उदाहरण के लिये हम अपने वर्तमान ज्ञान को देख सकते हैं। इसमें तीन बातें पाई जाती हैं। एक तो यह अपूर्ण है, क्योंकि हम सब-कुछ नहीं जानते । दूसरे यह अविशद है, क्योंकि जिन विषयों को हम जानते हैं उनमें भी कहीं न कहीं कुछ न कुछ सन्दिग्धता अवश्य बनी रहती है, अन्यथा हेतु आदि के द्वारा अथवा दूसरे से पूछकर उसे पुष्ट करने की आवश्यकता हमें न होती। तीसरी बात इसमें हानि वृद्धिगत तरतमता भी सर्व प्रत्यक्ष है, किसी का ज्ञान कम है और किसी का अधिक। जिसका ज्ञान आज कम है कल को वह अधिक हो जाता है और जिसका अधिक है, कल को वह कम हो जाता है। ये तीनों बातें प्रत्येक क्षायोपशमिक भाव में स्वाभाविक हैं। ___ हमारी ज्ञान दर्शन तथा दान लाभ भोग आदि शक्तियों की सकल अभिव्यक्तियें जो आज अनुभव में आ रही हैं वे सब क्षायोपशमिक हैं। कर्म-सिद्धान्त की भाषा में कहें तो इन सकल शक्तियों को तिरोहित या आच्छादित करने वाली ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय प्रकृतियों का क्षयोपशम ही वर्तमान में हमें उपलब्ध है। उपशम इनका सम्भव नहीं और क्षय वर्तमान में प्राप्त नहीं है। इसी प्रकार जिनका उपशम सम्भव है उन सम्यक्त्व तथा चारित्र नामक शक्तियों के विषय में भी जानना । दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से तत्त्व-दृष्टियुक्त जो समता व्यक्त होती है, और चारित्र-मोहनीय के क्षयोपशम से जो शमता प्राप्त होती है, उन दोनों में भी ये तीनों बातें स्वाभाविक हैं ? दोनों कर्म-प्रकृतियों के क्षयोपशम से प्राप्त समता तथा शमता उपशम की भाँति पूर्ण न होकर अपूर्ण होती हैं, उसकी भाँति अत्यन्त विशद अथवा निश्चल न होकर कम्पित होती हैं, अस्थिर होती हैं। कभी बढ़ जाती हैं और कभी घट जाती है। किसी साधक में वे अधिक होती हैं और किसी में कम। जिनमें आज अधिक हैं उनमें कल को कम हो जाती हैं और जिनमें आज कम हैं उनमें कल को अधिक हो जाती हैं।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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