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________________ कर्म सिद्धान्त ६६ १४. उपशम आदि द्रव्य तो नीचे वाले (नं० २ से नं० १० तक के) ९ निषेकों में मिल जाता है और कुछ द्रव्य ऊपर वाले (नं० १६ से ५० तक के) ३५ निषेकों में चला जाता है। दूसरे समय नं० २ वाला निषेक उदय में आता है । उस समय उन्हीं ५ निषेकों का कुछ और द्रव्य नीचे वाले (नं० ३ से १० तक के ) ८ निषेकों में तथा ऊपर के ३५ निषेकों में चला जाता है। तीसरे समय नं० ३ वाला निषेक उदय में आता है। उस समय उन्हीं ५ निषेकों का कुछ और द्रव्य नीचे के शेष ७ निषेकों में और ऊपर के ३५ निषेकों में चला जाता है । यहाँ तक कि ८ वें समय नं० ८ वाला निषेक उदय में आ जाता है । उस समय उन ५ निषेकों का शेष बचा सारा द्रव्य नीचे के २ और ऊपर के ३५ निषेकों में चला जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे करके ९ वें निषेक के उदय के समय नं० ११ से १५ तक के ५ समय निषेकों की सत्ता से सर्वथा शून्य हो जाते हैं । सत्तागत निषेक रचना में अब ११ वें समय के नीचे वाले १० वें समय पर निषेक विद्यमान हैं, और दूसरी तरफ १५ वें समय के ऊपर वाले ३५ समयों पर भी निषेक बैठे हुए हैं । परन्तु ११ वें से 15 वें तक के मध्यवर्ती ५ समयों पर अब कोई निषेक विद्यमान नहीं है । इन पाँच समयों पर जो निषेक पहले विद्यमान थे उनका कुछ द्रव्य तो अपकर्षण द्वारा नं० २ से १० तक के ९ निषेकों के साथ मिलकर अपना फल दे चुका है अथवा दे रहा है, और उनका कुछ द्रव्य उत्कर्षण द्वारा नं० १६ से ५० तक के ३५ निषेकों के साथ मिलकर उदय काल की प्रतीक्षा कर रहा है। इस प्रकार निषेक रचना की पूर्व स्थित अटूट श्रृंखला में से मध्यवर्ती ये पाँच कड़ियाँ निकल गई हैं, जिसके कारण पूर्व स्थित सत्ता में ५ समयों का अन्तराल पड़ गया है। अपकर्षण तथा उत्कर्षण के द्वारा सत्तागत निषेकों की अटूट श्रृंखला में इस प्रकार अन्तराल डाल देने को शास्त्र में 'अन्तरकरण' कहा जाता है । अन्तरकरण हो जाने के पश्चात् अपने क्रम पर जब ११ वाँ समय प्राप्त होता है तो प्राकृतिक कर्म-व्यवस्था को वहाँ कोई भी निषेक उदय में आने योग्य दिखाई नहीं देता । इसलिए बेचारी को इस समय खाली माथे पर हाथ धरकर बैठे रहना पड़ता है । इसी प्रकार १२ वें, १३ वें, १४ वें तथा १५ वें समय में भी । फलस्वरूप इन ५ समयों में जीव पूर्ण समता तथा शमता का अनुभव करता है । परन्तु १६ वां समय प्राप्त होते ही वहाँ पर विद्यमान निषेक उदय में आ जाता है जिसके कारण तीन दिन के लिए राज्य प्राप्त कर लेने वाले बच्चे-सक्के की भाँति जीव ५ समयों के लिए प्राप्त अपनी उस शुद्ध दशा को छोड़कर पुनः नीचे आ जाता है और पहले की भाँति ही संसारी बनकर रह जाता है । : इसी बीच के थोड़े से काल का नाम 'उपशम' है, जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अर्थात् कुछ सैकेण्डों प्रमाण होता है । यह उपशम केवल मोहनीय कर्म का ही होना सम्भव है, क्योंकि कषायों का तो क्षणिक शमन देखा जाता है, परन्तु ज्ञान आद गुणों की पूर्ण स्वच्छता हो जाने पर या सर्वज्ञता प्रकट हो जाने पर वह पुनः विलीन हो जाए यह
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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