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________________ कर्म सिद्धान्त ५८ १३. संक्रमण आदि अपकर्षण ये तीन करण उसकी सहायता के लिये हर समय तत्पर हैं। इस अधिकार में इन तीन करणों का ही स्वरूप चित्रण करना इष्ट है । शेष चार करणों का आगे किया जायेगा। संक्रमण, उत्कर्षण तथा अपकर्षण नामक तीन करण ही वास्तव में वह परिवर्तन है जिसमें से कि सत्ता-गत कर्मों को गुजरना पड़ता है। इन तीनों का पृथक्-पृथक् विस्तार तो आगे किया जायेगा यहाँ केवल उनके सामान्य स्वरूप का संक्षिप्त सां परिचय देना आवश्यक है। २. भूमिका–'संक्रमण' का अर्थ है कर्म-प्रकृतिका बदलकर अन्य रूप हो जाना अर्थात् अशुभ से शुभ अथवा शुभ से अशुभ हो जाना। 'उत्कर्षण' का अर्थ है कर्म-प्रकृति में पड़े हुये अनुभाग का तथा स्थिति का बढ़ जाना। इसी प्रकार 'अपकर्षण' का अर्थ है कर्म प्रकृति में पड़े हुये अनुभाग का तथा स्थिति का घट जाना । युगपत् सर्व अंगों का कथन असम्भव होने से , भले ही बन्ध उदय सत्त्व संक्रमण उत्कर्षण अपकर्षण आदि सबका उल्लेख पृथक्-पृथक् किया गया हो, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि ये सब एक दूसरे से पृथक् तथा स्वतन्त्र कुछ हों। कर्म-व्यवस्था में ऐसा कुछ नियम नहीं है कि जिस समय बन्ध उदय होता है उस समय संक्रमण आदि न होते हों और जिस समय संक्रमण आदि होते हैं उस समय बन्ध उदय न होते हों। और न ही कोई ऐसा नियम है कि जो परिणाम बन्ध में निमित्त होते हैं वे संक्रमण आदि में निमित्त न होते हों और जो परिणाम संक्रमण आदि में निमित्त होते हैं वे बन्ध में निमित्त न होते हों। .. आगे पीछे वाला ऐसा कुछ क्रम नहीं है। कर्म-सिद्धान्त के अंगोपांग रूप से वर्णित १० करण यथा योग्य रीति से हीनाधिक रूप में प्रति समय युगपत् हुआ करते हैं, और उन सबका निमित्त जीव का तत्समयवर्ती एक परिणाम ही होता है। तात्पर्य यह कि जो परिणाम बन्ध का कारण है वही उपरोक्त सत्तागत परिवर्तन का अर्थात् . संक्रमण आदि का भी कारण है । इस परिवर्तन की बड़ी विचित्रता है। __ कभी-कभी तो सत्ता में पड़े कर्मों की प्रकृति ही बदलकर शुभ से अशुभ और अशुभ से शुभ हो जाती है, अथवा क्रोध से मान और मान से क्रोध या माया हो जाती है। कभी-कभी उनकी स्थिति तथा अनुभाग बढ़ जाते हैं और कभी घट भी जाते हैं। शुभ परिणाम द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग बढ़ जाता है और अशुभ का घट जाता है, साथ ही स्थिति दोनों की कम हो जाती है। इसके विपरीत अशुभ परिणाम से अशुभ की अनुभाग-वृद्धि, शुभ की अनुभाग-हानि और दोनों की स्थिति में वृद्धि हो जाती है। इनमें प्रकृति-परिवर्तन का नाम 'संक्रमण' है, स्थिति तथा अनुभाग की वृद्धि का नाम ‘उत्कर्षण' है और उनकी हानि का नाम 'अपकर्षण' है । प्रदेश इन तीनों में अनुस्यूत हैं, इसलिये उनका पृथक् से परिवर्तन कुछ नहीं होता।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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