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________________ १३. संक्रमण आदि १. निराशा में आशा; २. भूमिका; ३. संक्रमण; ४. अपकर्षण; ५. उत्कर्षण। १. निराशा में आशा-जीव का अपने रागादि भावों के रूप में अपराध करना, उसके निमित्त से द्रव्य कर्मों का बन्धना, पीछे काल-क्रम से उनका उदय में आना, उसके निमित्त से पुन: रागादि अपराध होना, यह चक्र अनादि तथा स्वत: सिद्ध है। परन्तु इतना ही नहीं, कुछ और भी है, जिसके कारण से कि इस अटूट श्रृंखला का उच्छेद होना सम्भव है, अन्यथा किसी भी जीव को किसी भी काल में मुक्ति की प्राप्ति न होती। उसी का परिचय देने के लिये यह अधिकार प्रारम्भ किया जाता है। .. मन वचन अथवा काय से जीव जो तथा जैसी कुछ भी प्रवृत्ति करता है वैसी ही प्रकृति वाले कर्म-प्रदेश उसके साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, अन्य प्रकार के नहीं। साथ-साथ उसकी वह प्रवृत्ति जैसे कुछ भी मन्द या तीव्र रागादि कषायों से युक्त होती है, डिग्री टु डिग्री उतना ही मन्द या तीव्र अनुभाग उस कर्म प्रकृति में पड़ता है हीन या अधिक नहीं । इसी प्रकार स्थिति भी उस प्रकृति में डिग्री टु डिग्री उतनी ही पड़ती है, हीन या अधिक नहीं । जिस प्रकार बन्ध की दिशा में उसी प्रकार उदय की दिशा में भी समझना । जिस समय जिस भी प्रकृति का तथा उसके साथ जितने भी अनुभाग का उदय होता है, उस समय जीव को वैसी ही और डिग्री टु डिग्री उतनी ही मन्द या तीव्र परिणाम युक्त प्रवृत्ति करनी पड़ती है, उससे भिन्न प्रकार की अथवा उसकी अपेक्षा किंचित् भी हीन या अधिक नहीं। इस प्रकार बन्ध पक्ष तथा उदय पक्ष इन दोनों में ही यद्यपि भाव-कर्म और द्रव्य कर्म की परस्पर अन्वय व्यतिरेक व्याप्ति देखी जाती है, तदपि मुमुक्षु के कल्याण का द्वार बन्द नहीं होता; क्योंकि जिस प्रकार भाव के अनुसार डिग्री टु डिग्री बन्ध होता है और जिस प्रकार उदय के अनुसार डिग्री टु डिग्री भाव होता है, उस प्रकार बन्ध के अनुसार डिग्री टु डिग्री उदय नहीं होता । बन्ध तथा उदय के मध्य सत्ता की एक बहुत बड़ी खाई है, जिसमें प्रतिक्षण कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। जैसा कर्म बंधा है उदय में वैसा का वैसा ही आये, ऐसा कोई नियम नहीं है। सत्ता में रहते हये उसे अनेक परिवर्तनों में से गुजरना पड़ता है। बन्ध उदय सत्त्व आदि जिन दश करणों या अधिकारों का नामोल्लेख पहले किया गया है, उनमें से अब तक बन्ध उदय तथा सत्त्व इन तीन करणों का ही विवेचन हो पाया है। शेष सात करणों का विवेचन आगे होना है। इसलिये बन्ध तथा उदय की उक्त व्याप्ति सुनकर साधक को घबराना नहीं चाहिए। शेष सात करणों में से संक्रमण, उत्कर्षण तथा
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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