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________________ कर्म सिद्धान्त २. वस्तु स्वभाव दृष्ट कार्य-व्यवस्था के दो प्रमुख कारण हैं, अन्तरंग व बाह्य । अन्तरंग कारण 'उपादान' और बाह्य कारण 'निमित्त' कहलाता है । वस्तु का स्वभाव उपादान है और उसके साथ अन्य उचित वस्तुओं का संयोग निमित्त कहलाता है। इन दोनों में पहले वस्तु-स्वभाव या उपादान को पढ़िये, निमित्त की बात पीछे । अनेकों चित्र-विचित्र कार्यों को प्राप्त प्रकृत-वस्तु अवश्य ही सदात्मक होनी चाहिये, क्योंकि असत् पदार्थ खग-विषाण वत् व्यवहार का विषय नहीं बन सकता। यह वस्तु का एक स्वभाव हुआ, जिसे आगमकार 'अस्तित्व गुण' के नाम से कहते हैं। सत्स्वरूप होते हए भी वह उसी समय प्रतीति में आ सकती है. जब कि स्वस्वरूप से प्रकाशित होते हुए भी अपने से अतिरिक्त अन्य पदार्थों के स्वरूप का त्याग कर दे, अन्यथा संकर व्यतिकर दोष की आपत्ति होगी। 'घट' पदार्थ पट और ‘पट' पदार्थ घट के रूप में जाना जायेगा, और सत-सामान्य का भान होते हुए भी सत् विशेष का या वस्तु-विशेष का निर्णय न हो सकेगा। अपने-अपने पृथक्-पृथक् प्रयोजनभूत कार्य से ही एक वस्तु दूसरी से विलक्षण प्रतीत होती है। इसे ही आगमकार 'वस्तुत्व गुण' कहते हैं। इतना ही नहीं, उस वस्तु को नित्य परिणमन या परिवर्तन-शील होना चाहिये कूटस्थ नहीं, प्रवाहित होना चाहिये स्थिर नहीं, अन्यथा उसमें किसी भी नवीन कार्य की उत्पत्ति असम्भव हो जायेगी। निज शक्ति के अभाव में दूसरी कोई वस्तु भी उसमें क्या कार्य उत्पन्न करेगी? वस्तु की इस शक्ति को आगम में 'द्रव्यत्व गुण कहा गया है। अपने स्वरूप को अन्य पदार्थ से विलक्षण प्रकाशित करती हुई परिणमनशील भी वह वस्तु अवश्य किसी न किसी आकार वाली होनी चाहिये, भले ही वह आकृति सूक्ष्म हो या स्थूल, क्योंकि आकृति-शून्य वस्तु कल्पना मात्र है, जैसे फ़ारिस में 'हुमा' नामक पक्षी । वस्तु के इस स्वभाव को 'प्रदेशत्व गुण' के नाम से कहा गया है। यदि वस्तु कल्पना मात्र नहीं है तो अवश्य किसी न किसी के परिचय में आई हुई होनी चाहिये । 'कुछ है तो सही परन्तु उसे कोई भी जान नहीं सकता' ऐसा कहना प्रलाप मात्र है। वस्तु के इस स्वभाव को 'प्रमेयत्व गुण' कहते हैं। परिणमनशील तथा सत्ताभूत उस वस्तु को अपनी सीमा में रहकर परिवर्तन करते हुए भी अन्य पदार्थ रूप से परिवर्तन नहीं कर लेना चाहिये, अन्यथा 'घट' पट बन बैठेगा और ‘पट' घट । इस प्रकार कोई भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी, वस्तु का निर्णय करने के लिये कोई भी मार्ग नहीं बन सकेगा। भले ही ताम्बे व सोने की भाँति पदार्थ परस्पर में घुल मिलकर एक हों जायें पर स्वरूप से वे अवश्य पृथक्-पृथक रहने चाहिएं, ताकि किसी भी उपाय से जब चाहें उन्हें पृथक् कर सकें। इसी प्रकार कोई भी वस्तु अपने गुण को छोड़कर अन्य वस्तु के गुण को धारण नहीं कर सकती । परिणमन करते हुए भी तथा घुलमिल कर एक हो जाने पर भी वह सदा अपने ही गुण में अवस्थित रहती है। उसके गुण हीन या अधिक भी नहीं हो जाते । इस स्वभाव को 'अगुरु-लघु गुण' कहा गया है,
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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