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________________ २. वस्तु स्वभाव १. करणानुयोग, २. वस्तु-स्वभाव, ३. वस्तु विभाग, ४. स्वचतुष्टय, ५. द्रव्य व भाव, ६. पर्याय । पहले अधिकार में यह बताया जा चुका है कि जीवों में दृष्टिगत सुख दुःख व पुनर्जन्म आदि निष्कारण नहीं हो सकते इनका कारण उस-उस जीव का अपना कर्म है, जिसके अनुसार तथा जिसके फलस्वरूप ही उसको इन चित्र विचित्र अवस्थाओं में रहना पड़ता है । कर्मानुसर फरलदान की व्यवस्था सहज तथा स्वाभाविक होनी चाहिये, ईश्वरकृत नहीं । १. करणानुयोग — कर्म सम्बन्धी इस विषय की तर्क पूर्ण गवेषणा करने का श्रेय मात्र जैन दर्शन को प्राप्त है। जैन वाङ्मय के चार मुख्य खण्डों या अनुयोगों में कर्म-सिद्धान्त विषयक एक पृथक् अनुयोग है, जो करणानुयोग के नाम से प्रसिद्ध है, और जिसका बहुत लम्बा चौड़ा विस्तार है । षट्खण्डागम, कषायपाहुड, महाबन्ध, पंचसंग्रह, गोमट्टसार, लब्धिसार, क्षपणसार आदि बड़ी-बड़ी तथा महान मूलकृतियें इसमें सम्मिलित हैं । उपरोक्त साहित्य पचासों पुस्तकों में विभक्त है, जिनके दर्शन भी दुर्लभ हैं। इस पर से इस महान सिद्धान्त विषयक जैन दर्शन की विस्तृत गवेषणा का अनुमान लगाया जा सकता है । I इस अनुयोग में क्योंकि स्थल-स्थल पर उच्च श्रेणी के गणित का प्रयोग किया गया है इसलिये इसको करणानुयोग कहते हैं। लोक अलोक का स्वरूप, संसार की चारों गतियों का तथा उनमें परिभ्रमण करने वाले जीवों का स्वरूप, काल चक्र के वर्तन का स्वरूप और इसी प्रकार के अन्यान्य अनेकों विषयों का यह संग्रह है । जीव के स्थूल व सूक्ष्म शुभाशुभ भावों का तथा नित्य प्रवाहशील चित्र-विचित्र मानसिक परिणामों का भी इसमें बड़ा स्पष्ट तथा सुन्दर ज्ञान कराया गया है, जिसको जाने बिना उनसे अपनी रक्षा करना तथा संसार से मुक्त होने के मार्ग का अनुसरण करना असम्भव है । इसलिये भी इसको 'करणानुयोग' कहते हैं क्योंकि 'करण' नाम जीव के परिणाम का है। २. वस्तु-स्वभाव - कर्म - सिद्धान्त का परिचय पाने से पहले हमें संक्षेप में वस्तु स्वभाव का संक्षिप्त सा अध्ययन कर लेना चाहिये । वस्तु में बनते तथा बिगड़ते हुए जो ये अनेकों आकृतियें तथा भाव नित्य प्रकट हो रहे हैं, इन सबका कारण जाने बिना प्रकृत विषय स्पष्ट नहीं हो सकता । यद्यपि वस्तु-व्यवस्था का यह विषय स्वतन्त्र रूप से अपना विस्तार रखता है, और 'पदार्थ विज्ञान' नाम की पुस्तक में इसका विशद वर्णन किया भी गया है, तथापि यहाँ संक्षेप में परिचय पाना आवश्यक है । वस्तु की
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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