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________________ (१६) महा ! वह दिन (ज्येष्ठ सुदी ७) कैसा ही उत्तम था कि कंबूस्वामीको केवलज्ञान हुओं, और सुवस्वामीको निर्वाणपद प्राप्त हुआ! धन्य हैं वे जीव जिनको ऐसा अवसर देखनेको मिल ! फिर स्वामीने कईएक दिन विहारकर अनेक भव्य जीवोंको प्रतिबोध किया, और स्वर्ग नरकादि चारों गतियोके दुःख-सुख तथा मुनि श्रावकके व्रत, तत्वका रवरूप, हेय ज्ञेय उपादेय आदिका स्वरूप भले प्रकार समझाया और विहार करते २ मथुरा नगरी आये, सो वहांके उद्यानमें शेष अघात। कर्म नाश कर परमपदको प्राप्त हुए । अईदास सेठ सन्यास मरण कर छठवें स्वर्ग देव हुए । निन· मतो सेठानी भी स्त्री लिंग छेदकर उसी रवर्गमें देव हुए। चारों पद्मनी आदि स्त्रियोंने भो तपके प्रभावसे स्त्री लिंग छेदकर उसी ब्रह्मोचर स्वर्गमें देव पर्याय पाई । विद्युतचर नामके महातपस्व' मुनिराय विहार करते करते मथुराके वनमें आये, सो एक वनदेवी आकर बोली-"हेस्वामिन् ! इस वनमें एक दानव रहता है सो बड़ा दुष्ट रवभावी है, और जो कोई यहां रहता है उसे रात्रिको आकर सपरिवार घर दुख देता है इसलिये हे स्वामिन् । आप रुपाकर यहासे अन्य क्षेत्रमें ध्यान घरें। तब स्वामी विद्युतचर कहने लगे कि जो डरले कायर है, उन मुनिये का सिइवृति गुण, (सिसे तप व्रतकी रक्षा होती है। नष्ट होनाता है और स्यारवृत्तिले वे तपसे भ्रष्ट हो नीच गतिको पाते है। आज तो हमारे प्रतिज्ञा है सो हम यही ध्यान करेंगे, बोहोनहार होगी सो होगी, ऐसा कह योग ध्यान धरा । जब आधी रात वीउ गई, तब - वह दानव आया और घोर उपसर्ग करने लगा | नाना प्रकारके रूप
SR No.009552
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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