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________________ शारीरस्थान-अ० ६. (७०९) है, कानसे शब्द सुनताहै, नासिकास गंधको सूंघताहै, जिज्ञासे रसको लेताहै, स्पर्शनेन्द्रियसे स्पर्शका ज्ञान फरताहै, बुद्धिसे वोध करताहै अर्थात् जानताहै इसलिये जडआदिकोंकी संतान मातापिताके समान जडसादि दोषोंवाली नहीं होती तो इस तरह कहनेसे भी आपके पक्षी हानि होतीहै । और प्रतिज्ञाहानिका दोष आताहै। क्योंकि ऐसा कहनेसे यह सिद्ध होजायगा कि इन्द्रियें होनेसे आत्मज्ञानी है तथा किसी इन्द्रिय नष्ट होनेसे आत्मा सूर्ख होजायगा। जिसमें ज्ञान उत्पन्न हाना और ज्ञान नष्ट होना यह दो भाव आजायेंगे तो आत्मा निर्विकार न कहा जाकर विकार प्रकृति अथवा प्रकृतिका विकार सिद्ध होजायगा । क्योंकि ज्ञानी आत्माही निर्विकार होताहै । यदि ऐसा कहो कि, दर्शन आदि इन्द्रियों द्वारा आत्मा विषयोंको ग्रहण करता है अर्थात् उनको इन्द्रियोंद्वारा जानताहै तो इन्द्रियोंके विना दर्शनादि ज्ञान न होनेसे आत्माको अज्ञ मानना होगा । आत्मा अज्ञ सिद्ध होजानेसे कारण न माना जायगा। कारण न माना जानेसे अनात्मा सिद्ध होजायगा । फिर आपका यह जितना कथन है सब वकवादमात्र और अनर्थक 'सिद्ध होजायगा । इसमकार कुमारशिरा भरद्वाजने कहा ॥ २३ ॥ . आत्रेयजीका उत्तर । आत्रेयउवाच । पुरस्तादतत्प्रतिज्ञातंसत्त्वंजीवस्पृक्शरीरेणामिसम्बनातीति । यस्मात्तुसमुदायप्रभवःसन्ग मनुष्यविग्रहे णजायतेमनुष्यश्चमनुष्यप्रसवइत्युच्यतेतद्वक्ष्यामः ॥ २४ ॥ यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहने लगे कि यह तो हम प्रथम ही कथन कर चुके हैं कि सत्त्वसंज्ञक मन-अनेक द्रव्योंके समूहरूप शरीरसे जीवका संबंध उत्पन्न कर देताहै अर्थात् सत्त्व-स भावोंको आत्मासे मिलादेताहै और जिस प्रकार द्रव्योंक समूहसे बने हुए गर्भका मनुष्य देहके साथ जन्म लेता है तथा जिसप्रकार मनुष्यसे मनुष्य उत्पन्न होताहै उसका वर्णन अव करतेहैं ॥ २४॥ सतानांचतुर्विधायोनिर्भवतिजरायबण्डस्वेदोद्भिदः। तासांखः । लुचतसृणामपियोनीनामेकैकायोनिरपरिसंख्येयभेदाभवतिभूतानामाकृतिविशेषापरिसंख्ययत्वात्।तत्रजरायुजानामण्डजानां प्राणिनामतेगर्भकराभावायांयांयोनिमापद्यन्तेतस्यांतस्वांयानो तथातथारूपासवन्ति । तद्यथा कनकरजतताम्रपुंसीसाआ: सिच्यमानास्तेषुतेषुमधूच्छिष्टबिम्वेषुतयेदामनुष्यबिम्बमाप- .
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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