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________________ शारीरस्थान-अ० १. (६८५). चोत्पद्यतस्वता ॥ १५२ ॥ यावन्नोत्पद्यतेसत्यावुद्धि तदहंय. या। नैतन्ममचावेज्ञायज्ञःसर्वमतिवर्तते ॥ १५३ ॥ यह जो संपूर्ण भावहैं यह सब दुःखके कारण हैं । अपना कुछ नहीं है यह सब अनित्य है।आत्मा उदासीनहै इसलिये यह आत्माका कियाहुआ नहीं है।शरीरादिकोंमें ममता होना वृथाहै इत्यादिक सत्या बुद्धिकी जबतक उत्पत्ति नहीं होती तवतक. अहंबुद्धि आदि नष्ट नहीं होते । जब सानिकी बुद्धि उत्पन्न हानेसे यह मेरा नहीं मैं इन सबसे अलग हूं इत्यादि यथावत् विज्ञान प्राप्त होजाताहै तब यह आत्मा ज्ञानी होनेसे संपूर्णका त्याग कर देताहै ॥ १५२ ॥ १५३ ॥ मोक्षका रूप । तस्मैिश्चरमसंन्याससमूलाःसर्ववेदनाः । लमज्ञाज्ञानविज्ञाना. निवृत्तियान्त्यशेषतः ॥ १५४ ॥ अतःपरब्रह्मसूतोभूतात्मानोपलभ्यते । निःसृतःसर्वभावेभ्यश्चिद्वंयस्यनविद्यते ॥ १५५ ॥ गतिब्रह्मविदांब्रह्मतश्चाक्षरमलक्षणम् । ज्ञानब्रह्मविदाश्चात्रनाज्ञस्तज्ज्ञातुमर्हति ॥ १५६ ॥ जब आत्मामें इसप्रकार यथावत् ज्ञान होनेसे संन्यास उत्पन्न होजाता है तक संपूर्ण कामादिकवेदना अज्ञता, ज्ञान, विज्ञान यह सब निःशेषतासे निवृत्त होजातेहैं । फिर यह परब्रह्मभावको प्राप्त होकर शरीरआदिकोंको प्राप्त नहीं होता । इसप्रकार संपूर्ण भावोंसे मुक्त होनेपर इस पुरुषका कोई चिह्न बाकी नहीं रहता । वह ब्रह्म ब्रह्मके जाननेवालाकी गति है अर्थात् ब्रह्मके जाननेवालेही उस अवस्थाकों जान सकतेहैं और प्राप्त होसकतेहैं । वह अक्षर है और लक्षणरहित है। ब्रह्मज्ञानरहित मनुष्य उसको किसी प्रकार भी नहीं जान सकते ॥ १५४ ।। १६६ ॥ १५६ ॥ १ चरमसन्न्यास इति पश्चाद्भाविसकलसन्न्यासे, प्रथमं हि मोक्षोपयोगित्वेन गुरुवचनात् क्रियासन्न्यासः कृत एव, परं स्वानुभावविरतन न कृतः, अभ्यासादुद्भतेन लाक्षादृष्टभावस्वभावेन यः सर्वसन्न्यासः क्रियते, तत्र समूला, सर्ववेदना ज्ञानादयश्च शरीरोपरमादेवोपरमन्ते; समूला इति सकारणाः, कारणञ्च बुद्धयाश्यः, संज्ञा आलोचनं निर्विकल्पकम्, ज्ञानं सविकल्पकम; विज्ञानं बुद्धयवसाय:, किम्श, संज्ञया नामोल्लेखेन ज्ञानम्, विज्ञान शास्त्रज्ञानम्, तत्त्वज्ञानमपि हि मोक्षं जनयित्वा निवर्तत एव कारणाभावात् ॥ सर्वविद्, इत्यादि प्रश्नस्योत्तरम्-अतः परमित्यादि। ब्रह्मभूत हात प्रकृत्यादिरहितः 'चिहं यस्य न विद्यते, इत्यनेन मुक्तात्मनः प्राणापानाद्यात्मलिंगाभावाद्गमकं चिह्न नात्येवेति दर्शयाते । न क्षरत्यन्यथात्वं न गच्छतीत्यनक्षरम्, आविद्यमान लक्षणं यस्येत्यलक्षणम्, एतस्यैव मोक्षस्यतरपुरुषाशेयतां दर्शयति-ज्ञयमित्यादि । ब्रह्मविदामेवाना मनास प्रत्येति, नाशानामहंकारादिगृहीतानामित्यर्थः । संग्रहो व्यक्तः ।
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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