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________________ ( ६८२ ) चरकसंहिता - भा० टी० 1 प्रवर्त्तते । तृष्णाच सुखदुःखानां कारणंपुनरुच्यते ॥ १३४ ॥ उपादतेहिसाभावान्वेदनाश्रयसंज्ञकान् स्पृश्यतेचानुपादाजोनास्पृष्टोवेत्ति वेदनाः ॥ १३५ ॥ जैसे - स्पर्शनेन्द्रिय संस्पर्श और मानससंस्पर्श यह दो प्रकार के संस्पर्शरूपी जो कर्म हैं यही सुखदुःखके ज्ञानके प्रवर्त्तक हैं । फिर सुखदुःखसे इच्छा द्वेपमयी तृष्णां उत्पन्न होती है । वह तृष्णाही सुखदुःखका कारण कही जाती है क्योंकि वह तृष्णांही वेदनाश्रय भावको ग्रहण करती है। जिसका ग्रहण नहीं किया जाता उसका स्पर्श भी नहीं होता किसीमकारका भी स्पर्श न होनेसे पीडाकी उत्पत्ति नहीं होती ॥ १३३ ॥ १३४ ॥ १३५ ॥ वेदनाके स्थान | वेदनानामधिष्ठानंमनोदेहश्च सेन्द्रियः । केशलोमनखाग्रान्नमलद्रवगुणैर्विना ॥ १३६ ॥ मन और इन्द्रिययुक्त शरीर पीडाका अधिष्ठान है । स्पर्शइन्द्रियरहित, केश, रोम, नख, मल, मूत्र और शरीरमें होनेवाले शब्द आदिक यह कोई भी वेदना अधिष्ठान नहीं हैं ॥। १३६ ।। योग और मोक्ष | योगे मोक्षेचसर्वासांवेदनानामवर्त्तनम् । मोक्षोनिवृत्तिर्निः शेषायोगोमोक्षप्रवर्त्तकः ॥ १३७ ॥ आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानां सन्निकर्षात्प्रवर्त्तते । सुखं दुःखमनारम्भादात्मस्थेमनासेस्थिते ॥ ॥ १३८ ॥ निवर्त्ततेतदुभयं वशित्वञ्चापजायते । सशरीरस्ययोगज्ञास्तंयोगमृषयोविदुः ॥ १३९ ॥ योग और मोक्षमें किस प्रकार के दुःखादिक उत्पन्न नहीं होते। और मोक्षमें तो. निःशेषरूपसे दुःखकी निवृत्चिही होती है और योगद्वाराही मोक्षकी प्राप्ति होती है ।' आत्मा, इंद्रिय मन और इंद्रियोंके विषय इनका संयोग होनेसेही मुखदुःखकी प्रवृत्तिः है। योगावस्था में मन निष्क्रिय होकर आत्मामें स्थित होजाता है। इसलिये उस अ..स्था में सुखदुःख की निवृत्ति होजाती है और वशित्व उत्पन्न होजाता है । सब इंद्रियोंकों तथा मनको वश में करलेनाही ऋषिलोग योग कथन करते हैं ॥ १३७ ॥ १३८ ॥ १३९१.
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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