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________________ (१०) चरकसंहिता-भा० टी०। समवाय। समवायोऽपृथग्भावोद्रव्यादीनांगुणैर्मतः । सनित्यायत्रहिद्रव्यंनतत्रानियतागुणाः॥४८॥ द्रव्य और उनके गुण आपसमें अलग नहीं होते द्रव्य और गुणका नित्य संबंध है उस नित्य संबंधको समवाय संबंध कहते हैं जहां द्रव्य रहते हैं उनमें गुणभी नियत रहते हैं ॥४८॥ समवायिकारण। यत्राश्रिताःकर्मगुणाःकारणंसमवायियत् । तद्र्व्यंसमवायी तु निश्चेष्टःकारणंगुणः ॥ ४९ ॥ जिसमें गुण कर्म मिलेहुए रहते हों और जो गुण कर्मका समवाय हो उसको द्रव्य कहते हैं। जो द्रव्यम समवाय और व्यापार रहित हुआ कारण हो उसको गुण कहते हैं. ॥ ४९ ॥ - कर्मलक्षण । संयोगेचवियोगेचकारणद्रव्यमाश्रितम् । कर्तव्यस्यक्रियाकर्मकर्मनान्यदपेक्षते ॥ ५०॥ जो द्रव्यके संयोग और वियोगमे कारण हैं और द्रव्यके आश्रय है उनको कर्म कहते हैं कर्तव्यकी जो क्रिया है उसीको कर्म कहते हैं इसके सिवाय कर्म किसी औरका नाम नहीं। तात्पर्य यह है, जो करते समय उस कर्तव्यकी अपेक्षासे क्रिया आरम्भ कीजाती है उसको कर्म कहते हैं ॥ ५० ॥ वैद्यकका प्रयोजन । इत्युक्तंकारणकार्यधातुसाम्यमिहोच्यते । धातुसाम्यक्रियाचोक्तातन्त्रस्यास्यप्रयोजनम् ॥ ५॥ इस प्रकार यहां पर सामान्यतास कार्य कारणका कथन करदिया अब रसरक्त आदि धातुओंकी सास्यावस्था और उनका साम्यावस्थाम रखनेका क्रम कहा जायगा क्योंकि इस शास्त्रका प्रयोजन ही धातुओंकी साम्यता ( आरोग्यता) का है ॥५१॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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