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________________ (४०४). चरकसंहिता-भा० टी०। घूनामेवमेवेतरेषामित्येषभावस्वभावोनित्यः स्वस्वलक्षणश्च । . द्रव्यांणांपृथिव्यादीनांसन्तिद्रव्याणिगुणाश्चनित्यानित्याः॥२०॥ इन्द्रिय स्थानके अरिष्टाधिकारमें-देह, प्रकृति, लक्षण इनका वर्णन करते हुए : मायुका प्रमाण कथन कियागयाहै । ( इसको देखो) इस आयुर्वेदका प्रयोजन स्वस्थ (तन्दुरुस्त ) मनुष्यकी आरोग्यावस्था स्थिर रखना और रोगी मनुष्यको रोगसे छोडाना अर्थात् रोगीके रोगका शान्त करनाही है ।सो यह आयुर्वेद अनादि होनेसे और स्वभाव संसिद्ध लक्षण होनेसे अर्थात् आयुर्वेद अपने संपूर्णलक्षणों द्वारा स्वभावके अनुकूल और स्वतःसिद्ध होनेसे. एवम् भावोंका स्वभावकं नित्य.होनेसे आयुर्वेद नित्य है । आयुकी जो संतान है और वृद्धि संतान यह नित्य नहीं है ऐसा नहीं होसकता अर्थात् आयुक्रम और भावोंकी वृद्धि संतति भी अनादि है इसलिये नित्य है और आयुर्वेदका ज्ञाता भी नित्य है अर्थात् आयु आयुर्वेद और इनका ज्ञान और ज्ञानवाला यह सदासेही नित्य हैं क्योंकि सुख और दुःखके सर्व भावका लक्षण परम्परासे सम्बन्ध रखता चला आता है इससे इस संग्रहकी स्पष्ट नित्यता प्रतीति होतीहै । आयुर्वेदके नित्य होनेमें और भी लक्षण कंथन करते हैं। कि द्रव्योंका जो स्वभाव है यह भी नित्य है क्योंकि गुरु, लघु, शीत, उष्ण, . स्निग्ध, और रूक्ष आदिकों के सामान्य विशेष योगसे वृद्धि और हास होता है। (प्रथमाध्यायमें कथन कर चुके हैं सव भावोंकी सामान्यतासे प्रवृत्ति वृद्धिका कारण । और असामान्यतासे प्रवृत्ति ह्रासका कारण होताहै, जैसे कि-गुरु वस्तुओंका' । अभ्यास करनेसे गुरुताका उपचय और लघुताको अपचय होता है इसी अंकार रूक्ष । निग्ध आदि भावोंको भी जानना चाहिये)। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि द्रव्योंके भावोंका स्वभाव.नित्य है । पृथ्वी आदिक पंचमहाभूतोंके गुणविशिष्ट जो द्रव्य है उनमें भी अपने २ लक्षणोंसे पृथिव्यादि महाभूतोंके गुण नित्य प्रतीत होतेहैं यद्यपि द्रव्योंमें रसादिगुण अनित्य होतहैं परन्तु जिस द्रव्यमें-जो आग्नेय या जलीयगुण प्रधान होताहै' 'वह कभी नष्ट नहीं होता। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि भावोंके स्वभावोंको नित्यता होनेसे भी आयुर्वेद नित्य ही है ॥ २०॥":":... ' नहिआयुर्वेदस्याभूत्वोत्पत्तिरुपलभ्यते।अन्यत्रांवबोधोपदेशा-. भ्यामेतद्वैद्वयमधिकृत्यउत्पत्तिमुपदिशन्त्येकेस्वाभाविकञ्चास्य' लक्षणमधिकृत्ययदुक्तमिहचायेअध्यायेयथाग्नेरोष्ण्यमपांद्रवत्वंभावस्वभावनित्यत्वमपिचास्ययथोक्तं गुरुभिरभ्यस्यमान गुरूणामुपचयोभवत्यपचयोलघूनामित्येवमादि ॥२१॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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