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________________ चरकसंहिता - भा० टी० । पञ्चेन्द्रियद्रव्याणिधातुप्रसादसंज्ञकानिशरीरसन्धिबन्धपिच्छादयश्चावयवाः ते सर्वे एवधातवामलाख्याः प्रसादाख्याश्चरसमलाभ्यां पुष्यन्तःस्त्रमानमनुवर्त्तन्ते ॥ ३ ॥ उस आहारका जो उत्तम भाग रस है वह शरीरको पुष्ट करता है तथा उस रमसे रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र एवम् ओज वनते हैं एवम् इसी रससे पंचेन्द्रियों में पुष्टि, प्रसन्नता, धातुओंमें वल, शरीरके संधिवन्धनों का प्रसाद और दृढता आदिक उत्पन्न होते हैं । यह संपूर्ण धातुएं दो भागों में विभक्तह - एक प्रसादसंज्ञक, दूसरी मलसंज्ञक यह दोनों साररूप रसोंसे और शरीर रक्षक मलोंसे पुष्ट होती हुई अपने परिमाणोंकी रक्षा करती हैं ॥ ३ ॥ (३८०) यथावयः शरीरमेवंरसम लौस्वप्रमाणावस्थितौआश्रयस्यसमधातोर्धातुसाम्यमनुवर्त्तयतोनिमित्ततस्तु क्षीणातिवृद्धानां प्रसादाख्यानां धातूनांवृद्धिक्षयाभ्यामाहारमूलाभ्यांरसः साम्यमुत्पादय आरोग्याय ॥ ४॥ इस प्रकार अवस्था तथा शरीर के अनुसार अपने २ प्रमाण में स्थित हुए रस और मल अपने आश्रित शरीरके धातुओंको साम्यावस्था में रखते हुए रक्षा करते हैं एवम् कारण विशेषसे प्रसाद संज्ञक जो धातुएं हैं उनकी आहार मूलक वृद्धि क्षीणताको रस साम्यावस्था में लाता है और यह रस ही मनुष्योंकी आरोग्यताको रखता है ४ ॥ किञ्चमलानामेवमेव ॥ स्वमानातिरिक्ताः पुनरुत्सर्गिणः शीतोष्णपर्य्याय गुणैश्चोपचर्य्यमाणामलाः शरीरधातुसाम्यकराः समुपलभ्यन्ते ॥ ५ ॥ जिस प्रकार रस सम्पूर्ण धातुओंको साम्यावस्थामें रखता है उसी प्रकार किट्ट -भी सम्पूर्णमलों को साम्यावस्थामें रखता है । अपने ठीक परिमाणपूर्वक निकलते हुए मल ( तथा वात, पित्त, कफ भी ) शीत, उष्ण आदि गुणोंसे परिवर्तित होते हुए धातुओं को साम्यावस्थामें करनेवाले होते हैं अथवा यों कहिये कि अपने मानसे • क्षीणता और वृद्धिको प्राप्त हुए मल शीत, उष्ण द्रव्योंद्वारा चिकित्सित होकर साम्यावस्थाको प्राप्त हो धातुओं को साम्यावस्था में करनेवाले होते हैं ॥ ५ ॥ तेषान्तुमलप्रसादाख्यानां धातूनांस्त्रोतांस्ययनमुखानि तानिय - थाविभागे यथास्वं धातूनापूरयन्त्येवमिदंशरीरमाशितपीतली
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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