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________________ (७५) सूत्रस्थान-अ०६. आदान कालके आकर्षणसे दुर्वलहुए देहम जठराग्नि भी दुर्वल होजातीहै । फिर वह जठराग्नि वर्षाकालके जल वायु आदिसे और भी क्षीण होजाती है ॥ ३२॥ पवनका कोप। भवाष्यान्मेघनिस्यन्दात्पाकादम्लाजलस्यच । वर्षास्वग्निवलेक्षीणेकुप्यन्तिपवनादयः ॥ ३३॥ वर्षाकालमें पृथ्वीकी भांफ निकलनेसे, वर्षाके होनेसे, जलका खट्टा परिपाक. होनेसे अग्नि दुर्वल होकर वातादि दोष कुपित होते हैं ॥ ३३ ॥ वर्षामें त्यागनेयोग्य कर्म। तस्मात्साधारणःसवोंविधिर्वर्षासुवक्ष्यते ।उदमन्थदिवास्वनमवश्यायनदीजलम्॥३४॥व्यायाममातपश्चैवव्यवायश्चात्र वर्जयेत् । पानभोजनसंस्कारान् प्रायःक्षौद्रान्वितान्भजेत् ॥ ॥३५॥ व्यक्ताम्ललवणस्नेहवातवर्षाकुलेऽहनि । विशेषशीते. भोक्तव्यंवर्षास्वनिलशान्तये ॥ ३६ ॥ अग्निंसंरक्षणवतायवगोधूमशालयापुराणाजाङ्गलैमासभोज्ययूषैश्वसंस्कृतः॥३७॥ पिवेत्क्षौद्रन्वितञ्चाल्पमाध्वीकानिष्टमम्वुवा । माहेन्द्रतसशीतंवाकौपंसारसमेववा ॥ ३८॥ प्रघर्षोद्वर्तनस्नानगन्ध-. माल्यपरोभवेत् । लघुशुद्धाम्बरःस्थानं भजेदक्लोदिवार्षिकम् ॥ ३९॥ इसलिये वर्षाकालमें त्रिदोष नाशक साधारण क्रियाका सेवन करे वर्षाऋतुम--. शवत आदि जलके मंथ, दिनमेंसोना, ओस, नदीका पानी, कसरत,धूपमें फिरना, मैथुन, इनको त्यागदेवे । खाने पनि के पदार्थों में मायःशहदका प्रयोग करना हितकारक है । जिसदिन हवा और वर्षा होनेसे ठंढा हारहाहो उसदिन खट्टे नमकीन, चिकने, पदार्थ खाने चाहिये । ऐसा करनेसे वर्षाकालकी वायुकी शांति होतीहै । जठराग्निकी रक्षा करनेवालेको-यव, गेहूं, पुराने चावल, और जीवनके देनेवाले जंगली जीवोंके मांसका यूष, मधुयुक्त माध्वीक और अरिष्ट, और आकाशका जल या गर्मकरके ठंढा कियाहुआ अथवा कूएका जल. सेवन करना चाहिये। देहको भीगे वस्त्रसे घिसना, उबटन लगाना, स्नान करना, गंध लगाना, माला पहनना, हलके सूखे वस्त्र, इनको धारण करना चाहिये और कीचवाले तक्ष, गीले स्थानमें न रहे ॥ ३४-३९॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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