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________________ अष्टपाहुड जो किसीके बंधमें लीन होकर अर्थात् उसका आज्ञाकारी बनकर धान कूटता है, पृथिवी खोदता है और वृक्षोंके समूहको छेदता है वह पशु है, मुनि नहीं।। ___ भावार्थ -- यह कथन साधुओंकी अपेक्षा है। जो साधु वनमें रहकर स्वयं धान तोड़ते हैं, उसे कूटते हैं, अपने आश्रममें वृक्ष लगाने आदिके उद्देश्यसे पृथिवी खोदते हैं तथा वृक्ष लता आदिको छेदते हैं वे पशुके तुल्य हैं, उन्हें हिंसा पापकी चिंता नहीं, ऐसा मनुष्य साधु नहीं कहला सकता।।१६।। रागो (राग) करेदि णिच्चं, महिलावग्गं परं च दूसेदि। दंसणणाणविहीणो, तिरिक्खजोणी ण सो समणो।।१७।। जो स्त्रियोंके समूहके प्रति निरंतर राग करता है, दूसरे निर्दोष प्राणियोंको दोष लगाता है तथा स्वयं दर्शन-ज्ञानसे रहित है वह पशु है, साधु नहीं।।१७ ।। पव्वज्जहीणगहिणं, णेहं सीसम्मि वट्टदे बहुसो। आयारविणयहीणो, तिरिक्खजोणी ण सो सवणो।।१८।। जो दीक्षासे रहित गृहस्थ शिष्यपर अधिक स्नेह रखता है तथा आचार और विनयसे रहित है वह तिर्यंच है, साधु नहीं।।१८।। __ भावार्थ -- कोई-कोई साधु अपने गृहस्थ शिष्यपर अधिक स्नेह रखते हैं, अपने पदका ध्यान न कर उसके घर जाते हैं, सुख-दुःखमें आत्मीयता दिखाते हैं तथा स्वयं मुनिके योग्य आचार तथा पूज्य पुरुषोंकी विनयसे रहित होते हैं। आचार्य कहते हैं कि वे मुनि नहीं है, किंतु पशु हैं।।१८।। एवं सहिओ मुणिवर, संजदमज्झम्मि वट्टदे णिच्चं। बहुलं पि जाणमाणो, भावविणट्ठो ण सो सवणो।। हे मुनिवर! ऐसी खोटी प्रवृत्तियोंसे सहित मुनि यद्यपि संयमी जनोंके बीचमें रहता है और बहुत ज्ञानवान् भी है तो भी वह भावसे विनष्ट है अर्थात् भावलिंगसे रहित है -- यथार्थ मुनि नहीं है।।१९।। दंसणणाणचरित्ते, महिलावग्गम्मि देदि वोपट्टो। पासत्थ वि हु णियट्ठो, भावविणट्ठो ण सो समणो।।२०।। जो स्त्रियोंमें विश्वास उपजाकर उन्हे दर्शन ज्ञान और चारित्र देता है वह पार्श्वस्थ मुनिसे भी निकृष्ट है तथा भावलिंगसे शून्य है, वह परमार्थ मुनि नहीं है। भावार्थ -- जो मुनि अपने पद का ध्यान न कर स्त्रियोंसे संपर्क बढ़ाता है, उन्हें पासमें बैठाकर पढ़ाता है तथा दर्शन चारित्र आदिका उपदेश देता है वह पार्श्वस्थ नामक भ्रष्ट मुनिसे भी अधिक निकृष्ट है। जब मुनि एकांतमें आर्यिकाओंसे भी बात नहीं करते। सात हाथ की दूरीपर दो या दोसे अधिक संख्यामें बैठी हुई आर्यिकाओंसे ही धर्मचर्चा करते हैं, उनके प्रश्नोंका समाधान करते हैं, तब गृहस्थस्त्रियोंको एकदम
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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