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________________ ३३२ कुंदकुंद-भारती पासमें बैठाकर उनसे संपर्क बढ़ाना मुनिपदके अनुकूल नहीं है। ऐसा मुनि भावलिंगसे शून्य है अर्थात् द्रव्यलिंगी है, परमार्थमुनि नहीं है।।२०।। पुंश्चलिघरि जसु भुंजइ, णिच्चं संथुणदि पोसए पिंडं। पावदि बालसहावं, भावविणट्ठो ण सो सवणो।।२१।। जो साधु व्यभिचारिणी स्त्रीके घर आहार लेता है, निरंतर उसकी स्तुति करता है तथा पिंडको पालता है अर्थात् उसकी स्तुति कर निरंतर आहार प्राप्त करता है वह बालस्वभावको प्राप्त होता है तथा भावसे विनष्ट है, वह मुनि नहीं है।।२१।। इय लिंगपाहुडमिणं, सव्वं बुद्धेहि देसियं धम्म। पालेहि कट्टसहियं, सो गाहदि उत्तमं ठाणं ।।२२।। ___ इस प्रकार यह लिंगप्राभृत नामका समस्त शास्त्र ज्ञानी गणधरादिके द्वारा उपदिष्ट है। इसे जानकर जो कष्टसहित धर्मका पालन करता है अर्थात् कष्ट भोगकर भी धर्मकी रक्षा करता है वह उत्तम स्थानको प्राप्त होता है।।२२।। इस प्रकार कुंदकुंदाचार्य विरचित लिंगप्राभृत समाप्त हुआ। शीलप्राभृतम् वीरं विसालणयणं, रत्तुप्पलकोमलस्समप्पायं। तिविहेण पणमिऊणं, सीलगुणाणं णिसामेह ।।१।। (बाह्यमें) जिनके विशाल नेत्र हैं तथा जिनके पाँव लाल कमलके समान कोमल हैं (अंतरंग पक्षमें) जो केवलज्ञानरूपी विशाल नेत्रोंके धारक हैं तथा जिनका कोमल एवं राग द्वेषसे रहित वाणीका समूह रागको दूर करनेवाला है उन महावीर भगवान्को मन वचन कायसे प्रणाम कर शीलके गुणोंको अथवा शील और गुणोंका कथन करता हूँ।।१।। सीलस्स य णाणस्स य, णत्थि विरोहो बुधेहि णिहिट्ठो। णवरि य सीण विणा, विसया णाणं विणासंति।।२।। विद्वानोंने शीलका और ज्ञानका विरोध नहीं कहा है, किंतु यह कहा है कि शीलके विना विषय ज्ञानको नष्ट कर देते हैं।।
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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