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________________ ३३० कुंदकुंद-भारता दसणणाणचरित्ते, तवसंजमणियमणिच्चकम्मम्मि। पीडयदि वट्टमाणो, पावदि लिंगी णरयवासं।।११।। जो मुनिवेषी दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप तथा तप संयम नियम और नित्य कार्यों में प्रवृत्त होता हुआ दूसरे जीवोंको पीड़ा पहुँचाता है वह नरकवासको प्राप्त होता है।।११।। कंदप्पाइय वट्टइ, करमाणो भोयणेसु रसगिद्धि । माई लिंगविवाई, तिरिक्खजोणी ण सो समणो।।१२।। जो पुरुष मुनिवेषी होकर भी कांदी आदि कुत्सित भावनाओंको करता है तथा भोजनमें रससंबंधी लोलुपताको धारण करता है वह मायाचारी मुनिलिंगको नष्ट करनेवाला पशु है, मुनि नहीं।।१२।। धावदि पिंडणिमित्तं, कलहं काऊण भुंजदे पिंडं। अवरुपरूई संतो, जिणमग्गि ण होइ सो समणो।।१३।। जो आहारके निमित्त दौड़ता है, कलह कर भोजनको ग्रहण करता है और उसके निमित्त दूसरेसे ईर्ष्या करता है वह जिनमार्गी श्रमण नहीं है।।१३।। भावार्थ -- इस कालमें कितने ही लोग जिनलिंगमें भ्रष्ट होकर अर्धपालक हुए फिर उनमें श्वेतांबरादिक हुए। उन्होंने शिथिलाचारका पोषण कर लिंगकी प्रवृत्ति विकृत कर दी। उन्हींका यहाँ निषेध समझना चाहिए। उनमें अब भी कोई ऐसे साधु हैं जो आहारके निमित्त शीघ्र दौड़ते हैं -- ईर्यासमितिको भूल जाते हैं और गृहस्थके घरसे लाकर दो-चार संमिलित बैठकर खाते हैं और बँटवारामें सरस-नीरस आनेपर परस्पर कलह करते हैं तथा इस निमित्तको लेकर दूसरोंसे ईर्ष्या भी करते हैं। सो ऐसे साधु जिनमार्गी नहीं हैं।।१३।। गिण्हदि अदत्तदाणं, परणिंदा वि य परोक्खदूसेहिं। जिणलिंगं धारंतो, चोरेण व होइ सो समणो।।१४।। जो मनुष्य जिनलिंगको धारण करता हुआ भी बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण करता है तथा परोक्षमें दूषण लगा-लगाकर दूसरेकी निंदा करता है वह चोरके समान है, साधु नहीं है।।१४।। उप्पडदि पडदि धावदि, पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण। इरियावह धावंतो, तिरिक्खजोणी ण सो समणो।।१५।। जो मुनिलिंग धारण कर चलते समय कभी उछलता है, कभी दौड़ता है और कभी पृथिवीको खोदता है वह पशु है, मुनि नहीं।।१५।। । बंधे णिरओ संतो, सस्सं खंडेदि तह य वसुहं पि। छिंददि तरुगण बहुसो, तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १६ ।।
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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