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________________ ३० भेद शु छ ? पदार्थ मात्र कथञ्चिद् भेदाभेद उभयात्मक छ, अभिन्न सामान्य स्वरूप सत् उपर कल्पायेली अनेक भेदोनी परंपरामा सदृश परिणाम प्रवाह कोई पण एक शब्दनो वाच्य बनी व्यवहार पाळे ते व्यंजन पर्याय, अने तेना जे क्रमिक भेदो अविभाज्य लागे ते अर्थपर्याय, जेमके जीवना पुरुष पुरुष एवा सदृश परिणाम प्रवाहमा निर्विकल्प बुद्धि थाय छे ते व्यंजन पर्याय, अने तेज पुरुषमा वाल युवान आदि अनेक विकल्पो नजरे पडे छे. ते बधा पुरुषरूप व्यंजन पर्यायना अर्थ पर्यायो छे. आ बाल विगेरेनां पण स्तनधय विगेरे तेना अर्थपर्यायो छे अने वाल ए व्यंजन पर्याय छे. पुरुषनी साथे बाल युवान वृद्धत्व विगेरे तेना पेटा भेदो कथश्चिद् भिन्नाभिन्नपणे रहेला छे. वाळ युवान वृद्धत्वनुं स्वरूप जुदु होवाथी ते पृथक् छे. अने ते बधा पुरुष साथे संकळायल होवाथी अभिन्न छ. आ वधी भिन्नाभिननी विचारणा द्रव्यार्थिक पर्यायाथिकना विषयरूप छे. अने तेथीज एकज गणातो पदार्थ स्वपर्याय परपर्याय विगेरेने लई अनंत बने छे.. ___ कोइ पण परमाणु के जीव अखंड होवाथी व्यक्तिरूपे भले एक होय छतां व्यंजन पर्याय अने त्रणे काळना अर्थपर्याय अनंत होवाथी ते अनंतरूपे भासमान थाय छे. आम विशेष्यभूत द्रव्य एक होवा छतां विशेषणभूत पर्यायोना भेदने लीधे जु, जुदुं मानवाथी पर्यायोनी जेटली संख्या तेटली संख्यावालं द्रव्य बने छे. ___ आम एकज पदार्थ अनंतधर्मोने लई अनंत बने छे आ पदार्थमा रहेल कोइ पण एक धर्म अने तेना विरोधि धर्मनी अपेक्षाए प्रथम त्रण भङ्ग थाय छे, आ त्रण भंग पण एकुकानयनी अपेक्षाए थाय छे, अने ते ते धमेना संयोगथी वीजा चार भङ्ग थाय छे, छल्ला चार भंग बे नय त्रण नयना संयोगथी थाय छे. प्रथम भंगमा जे धर्मनी मुख्यता होय ते धर्मनी सप्तमंगो कहेवाय छे, आ रीते नयसंयोजना घटित सप्तभङ्गी बने छे. आम नयवाद अने अनेकांतवादनी विचारधारा अनंत छतां सुयोग्य अने व्यवस्थित छे. जे विचारणा साधु वस्तुदर्शन प्रगटावी माणसने बहुश्रुत अने स्थिरबुद्धिक बनावे छे. अहि अतिगौरव भयथी अति विस्तार को नथी ? ( अवशिष्ट ) अष्टम द्वादशारे जो हेउवाय परूखंमि, हेओ आगमे य आगमिओ । सो ससमयपण्णवो, सिद्धत विराहिओ (हओ) अन्नोत्ति । का० ३ गाथा ४५ मूलनिमेणं पज्जवणयस्स, उज्जुसुअवयणविच्छेदो । तस्स उ साहपसाहा, सहविकप्पा सुहुममेदा । का-१. गा-५ ॥ द्वादशारे । हेउविसयोवणीयं, जह वयणिज्ज परो नियत्तेई । जइ तं तहा पुरिल्लो दाइंतो केण जि पन्तो॥ का-३ गा. ५८ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009536
Book TitleSammatitarka Maharnavatarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydarshansuri
PublisherJainmarg Prabhavaka Sabha Madras
Publication Year
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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