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________________ केतृदयफ कम् लोके सुखं मङ्गलानि सुभिक्षं कुर्युरुद्यताः ॥ १८८॥ ज्येष्ठाषाढांदिता वायोः पुत्रा विंशतिकेतवः । सवातजलवर्षायै तरुप्रासादभङ्गदाः ॥ १८६॥ एवं पञ्चोत्तरं शतं कचिदष्टोत्तरं शतम | केचिदेोत्तरं शतं केतुनां स्यान्मतत्रयात् ॥ १९०॥ दशैव रविजा गरायाः शतमेकोत्तरं ततः । त्रयोविंशा वायुजाताः शतमष्टोत्तरं तदा ॥ १९९॥ अथ १०५ केतूदयफलम् - एषां कदा फलमिति ज्ञेयमृक्षं विलोकयेत् । महोत्पातहते ऋक्षे देशेऽनावृष्टिसम्भवः ॥ १६२॥ यदुक्तम् - उल्कापानां दिशां दाहो भूकम्पों ब्रह्मवर्चसम् । दृष्ट्वा ऋक्षे भवेद् यत्र तादृक्ष पीडितं भवेत् ॥ १६३ ॥ लौकिकमपि - भूकंपगा तारापडया रगतपाहाणवुट्टि । (३५) ॥ १८ ॥ जेठ और आषाढमें वीस केतु वायु के पुत्र हैं, ये उदय होने से वायु और जल वर्षा करते हैं, तथा वृक्ष और महल का विनाश करते हैं ॥१८६॥ इस प्रकार एकसो पांच केतु हैं, कोई एक्सौ आठ और कोई एकसौ एक, एसे तीन मत से केतुओं की संख्या मानते हैं ॥ १६० ॥ जो सूर्य के पुत्र दश केतु माने तो एक सो एक और वायु के पुत्र तेईस केतु माने तो एकसौ आठ संख्या होती है ।। १६१ ॥ इनका फल देखने के लिये नक्षत्र को देखे, यदि नक्षत्र का महोत्पात से आघात हो तो देशमें अनावृष्टि होती है ॥ १६२ ॥ उल्कापात, दिग्दाह भूकंप और ब्रह्मतेज आदि को देख कर विद्वान् विचार करें, जो नक्षत्र उस दिन हो वही नक्षत्र पीडित होता है ॥ १६३ ॥ भूकंप, तारे का गिरना, रक्त और पाषाण की वृष्टि, केतु का उदय, सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण, इनमें स "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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