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________________ (५५) मेधमहोदये :तच्छासमे जयति विश्वविभासनेऽभूद, विद्वान् कृपादिविजयो दिवि जन्मसेव्यः । शिष्योऽस्य मेघविजयायवाचकोऽसौ, ग्रन्थः कृतः सुकृतलाभकृतेऽत्र तेन ॥१०॥ क्वचित्पाच्यैर्वाच्यैरतिशयरसात् श्लोककथनैः, क्वचिन्नव्यैः श्रव्यैः प्रकरणमभूदेतदखिलम् । सतां प्रामाण्याय क्वचिदुचितलोकोक्तिचितं, जिनश्रद्धांभाजामपि चतुरराजां समुचितम् ॥१०॥ अनुष्टुभां सहस्राणि त्रीणि सार्दानि मानितः। गंथोऽयं वर्षबोधाख्यो यावन्मेरुः प्रवर्तताम् ॥१०॥ यत्पुनरुक्तमयुक्तं दुरुक्तमिह तद्विशोधितुं युक्तम् । घद्धाञ्जलिनेति मयाऽभ्यर्थन्ते सकलगीतार्थाः ॥१०॥ मेरोर्विजयकृद्धैर्यादलंध्यो मेरुवद्धिया। करनेवाले उनके शासन में देवताओं से भी सेवनीय ऐसे 'श्री कृपाविजय नामके विद्वान हुए । उनके शिष्य 'श्री मेघविजय' उपाध्याय हुए, जिन्होंने यह ग्रंथ सुकृतका लाभके लिये किया ॥१०॥ इस ग्रंथ में कोई जगह तो अतिशय रस पूर्वक कहने लायक प्राचीन श्लोकों से और कोई जगह तो प्रवण करने योग्य नवीन श्लोकों से तथा सत्पुरुषों को प्रमाण होने के लिये कोई जगह मनोहर ऐसी उचित लोकोक्तियों से . यह प्रकरण संपूर्ण हुआ । जिनेश्वरके उपर श्रद्धा रखनेवाले चतुर जनों को उचित है कि इसका आदर करें ।। १०१ ॥ यह वर्षप्रबोध नाम का ग्रंथः अनुष्टुभ श्लोकोंके मानसे साहे तीन हजार श्लोकके प्रमाण है । जब तक मेरु पर्वत प्रवर्तमान रहै तब तक यह ग्रंथ भी प्रवर्त्तमान रहो ॥ १०२ ॥ इस प्रथमें मैं ने पुनरुक्त प्रयुक्त या दुरुक्त कहा हो उसको समस्त ज्ञानी पुरुष शुद्ध कर लें ऐसी हाथ जोड़के प्रार्थना है ॥ १०३ ॥ जो मेरुको विजय करने "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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