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________________ शकुननिरूपणम् राजन्यैरपि मान्यते स निपुण: प्रोल्लासि भास्वङ्गणः, शान् यन्मनसि स्फुरत्यतिशयाच्छ्री वर्ष बोधाह्वयम् ॥९६॥ त्रयोदशोऽधिकारोऽभूच्छास्त्रेऽस्मिन् शकुनाश्रयः । मदेकविंशतिद्वरिग्रन्थोऽलभत पूर्णताम् ॥९७॥ स्थानाङ्गसूत्रविषयीकृतवर्षबोध ज्ञानाय यत्प्रकरणं विहितं वितत्य । भक्त्या व्यदीपि जिनदर्शनमेव तेन, "लोकः सुखीभवतु शाश्वतबोधलक्ष्म्या ||१८|| प्रन्थकार-प्रशस्तिः --------- श्रीमत्तपागणविभुः प्रसरत्प्रभावः, पश्चोतते विजयतः प्रभनामसूरिः । तत्पट्टपद्मरणि विजयादिरत्नः, स्वामी गणस्य महसा विजितसुरत्नः ॥९९॥ (ko) चाहिये। जिसका उद्बोधन (विकाश) से पृथ्वी पर सर्व अर्थीका साधन रूप बहुत धन प्राप्त होता है और जिसके मन में श्रीवर्षप्रबोध (मेघमहोदय) नामका शास्त्र स्फुरायमान है ऐसा प्रकाशवाले गुणोंसे निपुण पुरुष राजाओं को भी माननीय होता है || ६ || इस ग्रंथ में यह शकुननिरूपण नाम का लेरहवां अधिकार है और इक्कीश द्वारोंसे यह ग्रंथ पूर्णताको प्राप्त होता है ॥ ६७ ॥ स्थानांगसूत्र का विषयीभूत ऐसा वर्षबोध का ज्ञानके लिये जो प्रकरण मैंने रचा है उसको भक्तिसे फैला करके जो जैन दर्शनको दीपावे बह शाश्वतज्ञानरूप लक्ष्मीसे सुखी हो ॥६८॥ जिनका प्रभाव फैल रहा है ऐसे श्रीमान् तपागच्छ के नायक श्री विजयप्रभसूरि' नामके आचार्य दीप रहे थे, उनके पट्टरूप कमलको विकाशः करने में सूर्य समान और अपने तेज से जीत लिया है सूर्य को जिन्होंने ऐसे 'श्री विजयरत्नसूरि' नामके आचार्य हुए ॥ ६६ ॥ विश्वको प्रकाशित "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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