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________________ मण्डलफलम् (२९) सन्धि कुर्वन्ति भूमीशाः सुभिक्षं मङ्गलोदयः ॥१५५।। कस्मिन् समय मण्डलानि फलदायकानि ? ...... उल्कापातादय. सर्वेऽमीषु स्वस्वफलप्रदाः । वर्षाकालं विना ज्ञेया वर्षाकाले तु वृष्टिदाः ॥१५॥ माहेन्द्रं सप्तरात्रेण सद्यो वारुणमण्डलम् । आग्नेयमर्धमासेन फलं मासेन वायवम् ।। १५७॥ सुभिक्षं क्षेभमारोग्यं राज्ञां सन्धिः परस्परम् । अन्त्यमण्डलयोर्जेयं तद्विपर्ययमाद्ययोः ॥१५८॥ माहेन्द्रे वारुणे चैव हृष्टा भवन्ति धेनवः । उत्पाताः प्रलयं यान्ति धरणी व ते शिवः ।। १५६ ॥ अर्घकाण्डे तुत्रिमासिकं तु चाग्नेयं वायव्यं च द्विमासिकम् । तो सब लोग आनन्दसे रहें, गजा परस्पर संधि करे, सुभिक्ष और मङ्गल हो ॥ १५५ ॥ उल्कापातादिक जो उत्पात हैं, वे इन मण्डलों में अपने २ फल को वर्षाकाल के विना दूसरे समय में देते हैं और वर्षाकाल में तो वृष्टि करने वाले होते हैं ॥ १५६ ॥ माहेन्द्रमण्डल का फल सात दिन में, वारुणमण्डल का फल शीघही, अग्निमण्डल का फल प्राधे मास में और वायुमण्डल का फल एक मास में होता है ।। १५७ ॥ सुभिक्ष क्षेम (कल्याण) पारोग्य और राजाओं की परस्पर सन्धि ये सब अन्त्य के दो मण्डलों में जानना, और आदि के दो मण्डलों में इससे विपरीत जानना॥१५८॥ माहेन्द्र और वारुणमण्डल में गौ प्रसन्न होती हैं, उत्पात नष्ट हो जाते हैं, और पृथ्वी पर मांगलिक होते हैं ॥ १५६ ॥ अर्घकांड में कहा है कितीन महीने में आग्नेय, दो महीने में वायव्य, एक महीने में वारुणा और सात "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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