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________________ पंचम कल्लोलः ५६ नवांशस्तं पाति रक्षति इति अंशपोंऽशनाथो यो ग्रहस्तत्रांशपे सूर्यादीनामंशगते क्रमेण फलमाह तद्यथा-सूर्यांशगतेऽशपे स्वर्णतृणोरोगिसेवया स्वर्णेन स्वर्ण परीक्षया, तृणैः सुगन्धैः, उर्णया रोमविक्रयाद्वा रोगिसेवया वैद्यकर्मणा धनमर्जयति ।।४।। लग्न या चन्द्रमा से दसवें स्थान पर कोई ग्रह न हो तो लग्न चन्द्रमा या सूर्य से. दसवें स्थान का स्वामी जिस राशि के नवमांश में हो, उस नवमांश का जो स्वामी हो वह धन देने वाला होता है । जैसे--दसवें का स्वामी सूर्य के नवमांश हो तो सोना, सुगन्धित द्रव्य, ऊन और वैद्य कर्म से धन का लाभ होवे ॥४॥ प्रथ चन्द्रकुजबुधगुरुनवांशगतांशपतेःफलमाह-- स्त्रीसेवाकृषिमुक्तादे-र्धात्वस्त्रानलसाहसात् । लिपिकाव्यादिनादेव-धर्मज्ञाकरतीर्थतः ॥५॥ आदि शब्दात् तत्रांशपे ग्रहे चन्द्रांशगते सति स्त्रीसेवया कृषिमुक्तादेः स्त्रीसेवया धन. कृषेमुक्तादेमुक्ताफलविक्रयाद्, आदिशब्दात् प्रवालशंखादीनां क्रयविक्रययोर्धनी । अादिशब्दात्तत्र कुजांशगते सति धात्वस्त्रानलसाहसात्, धातवो मृत्तिकाः पक्वा । अथवा सुवर्णादिमनःशिलाहिंगुलहरितालादयो धातव उच्यन्ते तेभ्यो धनम् । अस्त्रात् खड्गकुन्ततोमरशस्त्रिकारिकादिशस्त्रात् । अथवानलादग्निक्रियायाः । अथवा साहसात्-अनवलोकितकार्यकरणात्, स्वबलारम्भक्रियाद्वा धनी । एवं तत्र बुधांशगते सति लिपिकाव्यादिना, लिप्या अक्षरविन्यासेन गणित व्याख्यानेन वा । काव्येन काव्यशास्त्रकरणेनादिग्रहणाच्चित्रपुस्तपत्रच्छेदसूचीबाणमाल्यरचनादिभिर्धनी स्यात् । एवं तत्र जीवांशगते सति देवधर्मज्ञाकरतीर्थतो देवाद्देवार्चनाद् धनी, वा धर्माद्दानशीततपोभावना गुरुसेवया, ज्ञेभ्यु पण्डितेभ्योऽथवाऽऽकरेभ्यः सुवर्णादिलवणाद्यञ्जनादिगजादीनामन्यतमस्थानभ्यः, अथ तीर्थतस्तीर्थपूजया धनी स्यात् ।।५।। दशम भवन का स्वामी चन्द्रमा के नवांश में हो तो स्त्री की सेवा से. खेती से, मोती प्रवाल. शंख आदि के व्यापार से धन उपार्जन करे । मंगल के नवमांश में हो तो सोना. चांदो, मनःशिल, हिंगलु. हरताल प्रादि धातु के व्यापार से, तलवार, भाला, तोमर, शक्ति छुरी आदि शस्त्रों से, अग्नि क्रिया से, साहस से धन प्राप्त करे । बुध के नवमांश में हो तो लेखन कला से. काव्य प्रादि शास्त्र रचना से, चित्र आदि कला से धन का लाभ करे। गुरु के नवमांश में हो तो, देव पूजन से, धर्माराधना करके, पंडित सेवा से, खान से या तीर्थ पूजन से धन लाभ करे ॥५॥ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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