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________________ ६० जन्मसमुद्रः अथ शुक्रशन्यंशगतांशपादर्जनमाह-- मरिणभादेः श्रमाद् बन्धभारोढिनीचकर्मभिः । मित्रस्वारिगृहे खेशे मित्रस्वारिगृहाद् धनम् ॥६॥ आदिशब्दात् तत्रांशपे शुक्रगते सति मणिभादेर्मणितो मरकतवज्रपद्मरागपुष्परागेन्द्रनोलचन्द्रकान्तसूर्यकान्तादिभ्यः । अादिशब्दादश्ववृषमहिषीश्रेष्ठनरसेवाभ्यः । हयं तत्र शन्यंशगते श्रमाद् बन्धमारोढिनीचकर्मभिः, श्रमेण देशांतरग्रामान्तरगमनेन । अथ बन्धनेन स्वशरीरताडनेन, भारोढया भारवहनेन, नीचकर्मभिः स्वकुलानुचितकरणर्धनी स्यात् । अथ यदि जन्मकाले ये ग्रहा लग्नचन्द्रयोर्दशगास्तदभावे सति लग्नेन्द्राणां खेशाश्रितांशनाथमित्रस्वारिगृहे भवन्ति, तदा तैः कृत्वा मित्रस्वारिगृहाद् धनी स्यात् । यथा यद्येते मित्रगृहे भवन्ति तदा मित्रगृहाश्रयादेवं स्वगृहस्थैरेतैः स्वगृहादेवमेतैः शत्रुराशिस्थैः शत्रुगृहाद् धनमर्जयतीत्यर्थः । त्रिभिविशेषकम् ।।६।। दसवां भवन का स्वामी शुक्र के नवांश में हो तो मरकत, वजू पद्मराग, पुष्पराग, इन्द्रनील, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि मणियों के व्यापार से तथा घोड़े, बैल और भैंस आदि पशुओं से या उत्तम पुरुष की सेवा से धन उपार्जन करे । शनि के नवमांश में हो तो परिश्रम से, भार वहन करने से या नीच कर्म करके धन उपार्जन करे। नवमांश का स्वामी दशम भाव के पति का मित्र हो तो, मित्र के घर से, अपनी राशि का हो तो, अपने घर से और शत्रु राशि का हो तो, शत्रु के घर से धन प्राप्त करे ।।६।। अथ धनार्जनयोगान्तरमाह ___ लग्नस्वायगतैः सौम्यैर्बलिभिः स्वमनेकधा । __कर्मभि: सोऽर्जयेद् वा बलिन्युच्चै : स्ववीयतः ॥७॥ सौम्यैः शुभैर्बलिभिर्बलिष्ठलग्नस्वायगतैर्लग्नधनलाभानामेकतमस्थैः स्वं धनमनेकधा बहुप्रकारैः कर्मभिः स वालोऽर्जयेदुपार्जयेत् । वा अथवा अर्के बलिन्युच्चे मेषस्थे स्ववीर्यतो निजभुजबलाद् धनमुपार्जयेदित्यर्थः । येन केन कर्मणा पूर्वोक्तेन धनमीहते तेन तेन प्रकारेण यत्नादेव प्राप्नोतीत्यर्थः । इत्याजीविका ।।७।। बलवान् शुभ ग्रह यदि लग्न में धन स्थान में या ग्यारहवें स्थान में रहे हो तो अनेक प्रकार से धन उपार्जन करे । अथवा सूर्य बलवान् होकर अपनी उच्च राशि में (मेष राशि में) रहा हो तो अपने भुज बल से धन उपार्जन करे ।।७।। अधुना राजयोगानाह भादिमध्यान्तगेऽङ्गस्थे भूदेशग्रामपोऽङ्गपे । षत्र्याये स्वदंगेष्विन्दो: सौम्येष्वीशोऽथवा धनी ॥८॥ "Aho Shrutgyanam
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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