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________________ जन्मसमुद्रः यास्तस्या स्त्रिया उपपतिर्जारको भवतीत्यर्थः। अथास्ते सप्तमे यदि द्वौ ग्रहौ स्यातां तदा उपपतिरेष तृतीयो योगः ।।६।। स्त्री जन्म कुण्डली में सातवां स्थान या सातवें स्थान का पति यह दो ग्रह के बीच में हो, अथवा मित्र ग्रह के साथ हो तो उस स्त्री को उपपति होवे। अथवा सातवें भवन में दो ग्रह हों तो भी स्त्री को उपपति होवे ॥६॥ अथासतीयोगत्रयमाह क्रूरेऽबलेऽत्र सौम्येक्ष्येऽपस्वकान्तानु सान्यगा। शुक्रवक्रौ मिथोंऽशस्थौ वाम सेन्दू प्रियाज्ञया ॥१०॥ अत्र सप्तमस्थे क्रूरेऽबले बलहीने सौम्येक्ष्ये सौम्याः शुभास्तेषां मध्यादेकेनेक्ष्ये दृश्ये सति 'अपस्वकान्ता' अपगतः स्वकीयः कान्तो भर्ता यस्याः सा पतिना त्यक्ता सती अनु पश्चादन्यगा अन्यं भर्तारं गच्छतीति परभार्या स्यात् । वाथवा शुक्रवक्रौ शुक्रकुजौ च शब्दात् सप्तमस्थौ मिथोंऽशस्थौ यत्र तत्र राशौ परस्परांशस्थौ यदि तदा सान्यगा एवं द्वितीयो योगः। च शब्दादमू शुक्रकुजौ सेन्दू स चन्द्रौ यदि तदा सामान्यगा परं प्रियाज्ञया प्रियस्य भर्तु राज्ञया न तु स्वातंत्र्येण ।।१०।। सातवें स्थान में निर्बल क्र र ग्रह हो, उसको शुभ ग्रह देखते हो तो वह स्त्री अपने पति से छोड़ दी जाय बाद में दूसरा पति करे ।१। यदि शुक्र और मगल सातवें स्थान में हों और परस्पर एक दूसरे के नवमांश में हों तो स्त्री दूसरा पति करे ।२। यदि शुक्र और मंगल के साथ चन्द्रमा भी हो तो स्त्री अपने पति की प्राज्ञा से दूसरा पति करे ॥१०॥ अथान्ययोगद्वयमाह मन्दारभेङ्गगे सेन्दु-शुक्र पापेक्षितेऽन्यगा । वास्ते कुजांशे मन्देक्ष्ये रुग्गुह्यष्टांशगेऽन्यथा ॥११॥ मन्दारभे शनिकुजयोरेकतमस्य मकरकुम्भमेषवृश्चिकानामेकतमे भे राशौ अङ्गगे लग्नगे लग्नस्थे सेन्दुशुक्र इन्दुशुक्राभ्यां सह वर्तते यो राशिस्तस्मिन् पापेक्षिते पापदृष्टेऽन्यगा पररता मात्रा सह पुश्चली। वाथवाऽस्ते सप्तमस्थे यो राशिस्तत्रगते कुजांशे मन्देक्ष्ये शनिदृष्टे सति रुग्गुह्या रुजा रोगेण सह गुह्य यस्या सा रोगभगेत्यर्थः । इष्टांशके शुभनवांशे लग्नात् सप्तमस्थे शुभदृष्टे सत्यन्यथा विपरीतमिति, कोऽर्थः ? सुभगा पतिव्रता च ।।११।। यदि मकर, कुम्भ, मेष और वृश्चिक इनमें से कोई एक लग्न हो, उसमें चन्द्रमा और शुक्र दोनों साथ रहे हों, उनको पाप ग्रह देखते भी हों तो वह स्त्री अपनी माता के साथ व्यभिचारिणी होवे । लग्न से सातवां भवन मंगल के नवांश का हो. उसको शनि "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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