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________________ सप्तम कल्लोल: ८९ लग्नाच्चन्द्राद्वा लग्नेन्द्वोर्बलादेतत्फलं वाच्यम् । एतद् ग्रहोक्तफलाभावे सति सौम्यैरस्तस्थितैः शुभैः सप्तमस्थैः कृत्वा धन्या सुशीला विवेकिनी च । क्रूरैः सप्तमस्थैरप्रिया कुशीला रण्डा च । मिश्रः पापैः शुभैश्च सप्तमस्थैमिश्रिता कुरण्डा धार्मिको पापिनी । च शब्दाद् रण्डा विवाहात् पश्चादन्यभार्या भवेत् ।। युग्मम् ॥७॥ लग्न या चन्द्रमा से सातवें स्थान में सूर्य हो और शुभ ग्रह कोई देखते न हों तो वह स्त्री पति से त्याग दी जाय ।। यदि सातवें भवन में मंगल हो तो विधवा होवे ।। यदि सातवें भवन में शनि हो, उसको पाप ग्रह देखते हों तो वह बहुत काल तक कुमारी रहे या विलम्ब से विवाह हो ।३। यदि सातवें स्थान में शुभ ग्रह हो तो वह स्त्री सुशीलवती और विनयवती होवे ।४। यदि सातवें भवन में पाप ग्रह हो तो व्यभिचारिणी या रण्डा होवे ।। यदि सातवें भवन में मिश्र ग्रह हो तो मिश्र फल होवे ॥७॥ अथ योगान्तरमाह रन्ध्रऽन्त्ये च तनौ वोने वाङ्ग रण्डाष्टषष्ठगे। पापमध्ये तनौ चेन्दौ श्वशुरात्मककुलक्षया ॥८॥ उग्रे पापे रन्ध्रऽष्टमस्थे, अन्त्ये द्वादशस्थे च रण्डा । वा शब्दात् तनी लग्नस्थे पापैकस्मिन् अष्टमगे व्ययगे च रण्डा। वाथवाङ्ग लग्ने सर्वस्मिन् पापे लग्नगे, अथवा षष्ठाष्टगे पापे रण्डा विधवा । अर्थान्तराद् पूर्वोक्तयोगस्थैः सौम्यः सधवा । अथ तनौ लग्ने पापमध्यस्थे श्वशुरकुलक्षया निजकुलक्षयकी। अर्थात् सौम्यद्वयमध्यस्थे लग्ने श्वशुरकुलवद्धिनी । एवं चन्द्रऽपि स्वकुलवद्धिनी ॥८॥ ___जन्म-कुण्डली में आठवें और बारहवें भवन में पाप ग्रह हो तो विधवा होवे । एवं लग्न में पाठवें और बारहवें पाप ग्रह हो तो विधवा ।२। एवं लग्न में सब पाप ग्रह हो तो विधवा ।। अथवा छठे और आठवें भवन में पाप ग्रह हो तो विधवा ।४। उपरोक्त भवनों में यदि शुभ ग्रह हो तो सधवा । यदि लग्न या चन्द्रमा ये दो पाप ग्रह के बीच में हो तो कुल क्षय करने वाली और शुभ ग्रहों के बीच में हो तो कुल वद्धिनी होवे ॥८॥ अथ जारयोगत्रयमाह यद्यस्तं तत्पतिर्वा स्याद् ग्रहान्तरसुमित्रभाक् । अथास्ते द्वौ ग्रहौ स्यातां स्त्रिया उपपतिस्तदा ॥६। यदि स्त्रीजन्मकालेऽस्तं सप्तमं तत्पतिः सप्तमपतिः, ग्रहान्तरसुमित्रभाक् एकस्माद् ग्रहादन्यो ग्रहो ग्रहान्तरं तस्य सुमित्रं तद्भजतीति ग्रहैर्युक्त इत्यर्थः इत्येको योगः । अथ मित्रभाग मित्रयुत इति द्वितीयो योगः। अत्र योगद्वये जाता "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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