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________________ ८८ जन्मसमुद्रः चेद्यदि सितार्की शुक्रशनी मिथोंशस्थौ परस्परांशस्थौ अन्योऽन्येक्ष्यौ परस्परदृष्टौ तदा स्त्रीरतं कुर्यात् । अन्याभिः स्त्रीभिः कृत्वा । यथा एका स्त्री स्वजघने चर्ममयं लिङ्ग बध्वा परामुपभुङ्क्ते । अतोऽतिकामाधिक्यात् तां शान्तिं नेतु नरो न शक्नोति । वाथवा सिताङ्ग वृषतुलयोरेकतमे लग्नस्थे कुम्भांशे पूर्ववद् भोगं विधत्त । इति द्वितीयो योगः ॥५।। शुक्र और शनि ये परस्पर नवमांश में हो अर्थात शुक्र के नवमांश में शनि और शनि के नवमांश में शुक्र हो और परस्पर दोनों देखते हों तो स्त्री, स्त्री के साथ पुरुष सदृश मैथुन करे ।। अथवा शुक्र और शनि दोनों वृष या तुला राशि के लग्न में हो और लग्न का नवमांश कुम्भ हो तो स्त्री दूसरी के स्त्री के साथ पुरुष जैसे मैथुन करे ॥५॥ अथान्यद्योगान्तरमाह अङ्गाद्वन्द्वोः स्मरे शून्येऽबलेऽस्याः कानरः पतिः। वाज्ञे वाकौ नृकारो ना चरे पान्यः स्थिरे न च ॥६॥ अङ्गाद् लग्नाद्वा इन्दोश्चन्द्रात् स्मरे सप्तमे शून्ये ग्रहवजितेऽबले बलहीने शुभेनादृष्टे अस्याः पतिः भर्ता कानरः कुत्सितो नरः । अथवा ज्ञे बुधे आकौं शनौ वात्र सप्तमस्थे सति नृकारो ना पुरुषकारहीनो भर्ती क्लीब इत्यर्थः । सप्तमे चरराशौ सति पान्थो देशान्तरकारी भर्ता। स्थिरे सप्तमे सति न पान्थः किन्तु गृहस्थायी स्याद् । च शब्दाद् द्विस्वभावे सप्तमे सति किञ्चिन् पान्थः किञ्चिद् गृहस्थायी ॥६॥ लग्न या चन्द्रमा से सातवें स्थान में कोई भी ग्रह न हो, एवं निर्बल हो शुभ ग्रह उसको देखते न हो तो उस स्त्री को निदित पति मिले । अथवा बुध या शनि सातवे स्थान में हो तो स्त्री का पति नपुसक होवे । सातवें स्थान में चर राशि हो तो उस स्त्री का पति देशान्तर जाने वाला, स्थिर राशि हो तो स्थायी अपने घर रहने वाला और द्विस्वभाव राशि हो तो उस स्त्री का पति कभी परदेश और कभी स्थायी रहने वाला मिले ॥६॥ अथ योगान्तरमाह त्यक्ताकें विधवारेऽत्र पापेक्ष्याकौं चिराप्रिया। सौम्यैर्धन्या प्रियाऽस्तस्थैः क्रूरौः रण्डा च मिश्रितैः॥७॥ अर्केऽत्र सामीप्यात् सप्तमे सति हीनबले शुभदृष्टे च सति या जाता सा पतित्याज्या। तथा आरे कुजेऽत्र सप्तमे विधवा विवाहाद् बाल्या एव रण्डा । अथात्र पापेक्ष्याकौ पापेन ईक्ष्यो दृश्यो य आकिः शनिस्तत्र सप्तमस्थे चिराप्रिया, कुमारी सत्येव वृद्धा भवति न ऊह्यते, अथवा कालेन परणीयत इत्यर्थः । अत्र "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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