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________________ कालिकाचार्यकथा | स्वन्यालोक्य esari, नंदा गतो भूपतिगर्दमिल्लः । पुरीं विशालां स यदा प्रविष्टस्तदैव साऽवेष्टि बलै रिपूणाम् ||३५ ॥ गर्द भिल्ल राजा आपणुं सैन्य हतप्रताप भागुं देखीनइ नाटु | अवंतीनगरी माहि जह पटु । तिवारई तत्काल वयरीने सैन्यै अवंती नगरी आपणे सैन्य करी वीटी ॥ ३५ ॥ अथान्यदा साहिभटैरपृच्छ, युद्धं प्रभो ! नैव भवेत् किमद्य ? | अधाष्टमी सूरिभिरुक्तमेवं स गर्दभीं साधयतीह विद्याम् ||३६|| अथ एतला अनंतर साहि राजाने सुभटे गुरु कन्हलि पुछिउं भगवन् एणि गढि चड्या नित्यमेव सुभट झुसई । आज कांई न झूझई ! गुरे कहिउं आज आठमिनी तिथि सही । गर्दभिल्ल राजा गईंभी विद्या साधइ छइ ॥३६॥ विलोकयद्भिः सुभटैरजस्रमट्टालये कापि गता खरी सा । दृष्टा तदा सा कथिता गुरुणां, तैरेवमुक्तं ध्वनिनाऽपि तस्याः ||३७|| १६७ तिचार पुंठिइ सुभट गढनै कोसीसे सघलह सोधवा लागा । एकइ अटालह कोसीसा विचिह्नं गर्दभीनुं मुख दीढुं । पछ गुरुनई कहिउं । पछइ गुरे कहिउं एह खरीनइ स्वरिई अनर्थ ऊपजिसि ॥ ३७॥ सैन्यं समग्रं लभते विनाशं धनुर्धराणां शतमष्टयुक्तम् । छात्वा गतः सूरिवरो निषङ्गी, स्वर्याः समीपं लघुशीघ्रवेधी ॥ ३८ ॥ युग्मम् ॥ गुरे कहिउँ सघल सैन्य वरीनु स्वर सांभलिसिह तु सघल सैन्य विनाश पा मिसिई । विमासीनई सैन्य स गाळ एक माठे पार्छु मोकलिउँ । आपणपिई श्रीकालिकसूरि धनुर्धरे धनुषना धरणहार महाशब्दवेधी भट्ठोत्तरसउ सहित सावधान सज थह रहिया ॥ ३८ ॥७५ येदेयमास्यं विवृतं करोति, तदेव शस्त्रैः परिपूरणीयम् । श्रीरिणाऽऽदिष्टममीभिरेवं कृते खरी मूर्द्धनि सूत्र - विष्टे ॥ ३९ ॥ हो सुभटो ! जि बारई गर्दभी आपणुं मुख विकस्वर करइ ति वारई तत्कालमेव भाधु तौरे करी भरीइ ति मुख भरिनुं । ते वात जाणीनई तेहे सुभटे तिम ज कीधुं । तिसि मस्तक मूत्र अनइ विष्ठा कीधा । विद्याभ्रष्ट थिउ ॥ ३९ ॥ आपणा बाण मूंकवा जिम गर्दभी विवाह गर्दमिलन सा गर्दभिल्लस्य विधाय नष्टा, भ्रष्टानुभावः स च साहिभूपैः । वा गृहीतः सुगुरोः पदान्ते, निरीक्षते भूमितलं स मूढः ||४०|| युग्मम् ॥ ते गर्दभी विद्या गर्दमिलन भ्रष्ट थई जाणी सैन्य बहिलं आवी नगरी लोधी । ति वारई साहि राजाए गर्दभिल्ल राजा जीवतु बांधीन गुरुना पाग आगलि आणिउ मूढ मूर्ख भूमिका साहमुं जोइ बोलइ नहीं ॥४०॥ रे दुष्ट पापिष्ट निकृष्टबुद्धे !, किं ते कुकर्माचरितं दुरात्मन् ! | महासतीशीलचरित्रभङ्गपापद्रुमस्येदमिहास्ति पुष्पम् ||४१॥ " Aho Shrutgyanam" गुरु कहवा लागा भरे दुष्ट ! पापिष्ट ! निकृष्ट ! अरे कुबुद्धिना करणहार ! ताहरउं कुकर्म जोह । अरे दुरात्मन् ! त जे मनि करी महासतीनूं शीलभंग करितुं वांछिउ तेह रूपीया पापमइ वृक्षनां पसूल ( न ) वर्त्तई ॥४१॥ यदेवमा S
SR No.009529
Book TitleKalikacharya Kathasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherKunvarji Hirji Naliya
Publication Year1949
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size11 MB
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