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________________ १६६ श्रीअज्ञातसूरिविरचिता ते साहानुसाहिनई कुणिहि अम्हास्य वयरीई चाडी कीधी। तेणिई करीय तु कोप हु। मझनई लेख मोकलिउ छह । आपणुं मस्तक मोकले जिम ताहरउ बेटउ राज्य पालइ । नहीतरि समर्थ थई रहिजे । एहवु आदेश भाविउ छइ । जु मस्तक मोकलीइ तु कुटंब परिवारसूत्र रहइ नहीतरि कुल क्षय हुइ। एहवु आदेश मझ पूठिह पंचागू रायनई एहवु जि आदेश आविउ छइ । तेणिई करी जीवतव्य जातइ कालमुख थिया छईइ ॥ २८ ॥ एका सर्वे सबलं मिलित्वा, हिन्दकदेशं चलताशु यूयम् । गुरोनिदेशादिति तैः प्रहृष्टै पैः प्रयाण पटिति प्रदत्तम् ॥२९॥ गुरे स(सा)हि राजा, वचन सांभली बलतुं कहीउं । तम्हो छन्नूं राय एकठा मिलीनई हिंदूना देस मोटा छइ तेह भणी नई तम्हो चाल । तिहां तम्यो(म्हो) ते देस लेई समाधिई राज्या पाल । ते वचन सांभली गुरुना वचननी प्रतीति चत्ति भाणी । सघलाइ एकठा कटक सहित मिलीनई पीयाणुं दीधुं ॥२९॥ उत्तीर्य सिन्धु कटकं सुराष्ट्रादेशे समागत्य मुखेन तस्थौ । सर्वऽपि भूपाः सुगुरोश्च सेवां, कुर्वन्ति बद्धाञ्जलयो विनीताः ॥३०॥ तेह साहिना कटक सिंधुनदी ऊतरीनई सुराष्ट्रदेश सोरठमाहि आवी रहिया । तिसिइ वर्षा लागु । सगलाइ छर्ने राय श्रीकालिकसूरिने सेवा करई । बिन्हई हाथा जा(जो)डीनई नित्य सेवा करई विनयवंत हुंता ॥३०॥ वर्षावसाने गुरुणा धमाषे. अवन्तिदेशं चलतेति ययम् । नृपं निगृहीत च गर्दभिल्लं, गृहीत राज्यं भविभज्य शीघ्रम् ॥३१॥ वरसातनइ प्रांति छेहडइ श्रीकालिकसूरे साहनई कहिउं भवंतीदेस मणी चालउ । तिहां गर्दभिल्ल राजा छ। तेहनु निग्रह करउ राज्य थकु उच्छेद । पछइ देस बहिचीनई आपणां आपणां राज्य पालु॥३२॥ अभाषि तैः शम्बलमस्ति ‘नो न:, किं कुर्महे कालिकसरिरेवम् । ज्ञात्वा च तेभ्यः शुभचूर्णयोगैः, कृत्वेष्टिकाः स्वर्णमयीर्ददौ सः ॥३२॥ तेह छy राए कालिकसूरि वीनव्या । अम्हारइ संबल खूटां किसिउँ कीजइ । ति वारई कालिकसूरिई इटवाह मोटु बलतु देखीनई माह माहि चूर्णसू किउं । ते चूर्णनइ योगिई सघलीइ ईट सूनानी थई । छनूं रायनई वहिचीनइ आपी॥३२ ढक्कानिनादेन कृतमयाणा, नृपाः प्रचेलुगुरुलाटदेशम् । तद्देशनाथौ बलमित्र-भानुमित्रौ गृहीत्वाऽगुरवन्तिसीमाम् ॥३३॥ छनूं राय ढक्का इसिइं नामि वाजिवनइ निनादिई पीयाणां कीधा ! श्रीकालिकसूरि लाडदेसमाहि थका बलमित्रभानुमित्र गुरुना भाणेज तेहनई मिली ते साथिई लीधा कटकसहित ते इ कटक अनइ साहिना कटकसहित अवंतीनगरीनी सीमई पुहता ॥ ३३ ॥ श्रुत्वाऽऽगताँस्तानभितः स्वदेशसीमा समागच्छदवन्तिनाथः । परस्परं कुन्तधनुर्लताभियुद्धं द्वयोः सैनिकयोर्वभूव ॥३४॥ ते कटक आपणी सीमई आव्यां सांभली गर्दभिल्ल राजा सबल गज तुरंगम स्थ पायक सहित साहमु आविउ । परस्परई भाले खांडे तोमर तीर शल्य वेल शस्त्रिका मुद्गरने प्रहारे करी अत्यंत अतिहिं झूझ हवां ॥३४॥ ७ अमाणि तैः P. नो न कि PI "Aho Shrutgyanam"
SR No.009529
Book TitleKalikacharya Kathasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherKunvarji Hirji Naliya
Publication Year1949
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size11 MB
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