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________________ अपनी विचार प्रक्रिया द्वारा अपनी आत्मा की मुझे स्वयं रक्षा करनी चाहिए । मुझे ही अपना तारक बनना है, मैं अपना घातक नहीं बनूँगा । (६१) मैं खुद को देह मानता हूँ, यह मेरा भ्रम है । जब मैं अपने आपको आत्मा के रूप में देखूँगा, तभी सुख होगा । (६२) मेरी शक्तियों की कोई सीमा नहीं है, उसको भूलकर मैं मूढ़, नीचों की संगति में लगा हूँ । (६३) अपने गौरव के विस्मरण से बड़ी कोई मूर्खता नहीं है । अपने गौरव का बोध होने से अधिक कोई विद्वता नहीं है । (६४) मैं कहाँ हूँ, मुझे कहाँ जाना है, मेरे लिये करणीय क्या है ? मैं क्या करूँ ? । मैंने क्या प्राप्त किया है ? मुझे क्या प्राप्त करना है ? मैंने क्या-क्या छोड़ा है और मेरे लिये छोड़ने योग्य क्या है ? (६५) मेरे में शक्तियाँ विद्यमान है । मुझे ही उनकी रक्षा करनी होगी । यदि मैं उनकी उपेक्षा करूँगा, तो मैं खुद का ही शत्रु बन जाऊँगा । (६६) तृतीय स् ६३
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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