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________________ ‘श्रीयोगविंशिका' नामक शास्त्र जो यशोवृत्ति से समन्वित है, सोने में सुगन्ध की स्थान आदि में इच्छादि योग का विस्तार करता है । (३१) श्री 'योगबिन्दु' सोलह कलाओं का धारक बड़ा चन्द्रमा है, जो भव्यात्माओं के हृदय रूपी सागर में ज्वार लाता है । (३२) श्री 'योगदृष्टिसमुच्चय' आठ सिद्धिओं के विलास के लिए, आठों कर्मों के विनाश के लिए, अष्टांग योग को प्रकाशित करने के लिए है । (३३) श्री प्रशमरति ग्रन्थ से प्रतिदिन प्रतिक्षण 'मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, इस प्रकार की जागृति होती है । (३४) आत्मानुभूति का विस्तार करने वाले 'ज्ञानसार' का सेवन करते हुए मन स्वयंसिद्ध, शुद्ध और सात्त्विक प्रसन्नता को प्राप्त करता है । (३५) जीवन की सफलता के लिए 'धर्मबिन्दु' का आश्रय लो. अमृत के आचमन मात्र से अमूल्य सुख प्राप्त करो । ( ३६ ) चौथा प्रस्ताव ८९
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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